Friday, March 29, 2013

हिन्दी लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव



डॉ सतीशराज पुष्करणा

 साहित्य की कोई भी विधा हो, जब वह विकास करती है, तो उसमें अनेक पड़ाव आते हैं जो उसके विकास को गति देते हैं ।लघुकथा भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है । यों तो लघुकथाओं का उद्भव विद्वानों ने वेदों से माना है किन्तु जहाँ तक हिन्दी–साहित्य का प्रश्न है तो डॉ राम निरंजन परिमलेन्दु के अनुसार, 1874 ई में बिहार के सर्वप्रथम हिन्दी साप्ताहिक–पत्र ‘बिहार–बन्धु’ में कतिपय उपदेशात्मक लघुकथाओं का भी प्रकाशन हुआ था । इन लघुकथाओं के लेखक मुंशी हसन अली थे जो बिहार के प्रथम हिन्दी–पत्रकार भी थे । इसके पश्चात् 1875 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघुकथाओं का संकलन ‘परिहासिनी’ प्रकाश में आया ।
1885 ई के आसपास तपस्वी राम ने पर्याप्त लघुकथाएँ लिखीं ,जो उनकी पुस्तक ‘कथा–माला’ में संगृहीत हैं । उनकी ये लघुकथाएँ नीति–कथाओं के निकट होते हुए भी वर्तमान लघुकथा की परंपरा की आरंभिक कड़ियों का सुखद एहसास कराती हैं । सन् 1912 के आसपास ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने ‘गल्पमाला’, ‘ईसप की कहानियाँ भाग–3’, ‘पंचशर’ आदि लघुकथा–संकलन संपादित किये । 1924 ई में आचार्य शिवपूजन सहाय की लघुकथा ‘एक अद्भुत कवि’ कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका ‘मारवाड़ी’ में प्रकाशित हुई थी । 1928 ई में लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ ने साहित्य में स्वीकृत नौ रसों में प्रत्येक रस पर एक–एक लघुकथा लिखी, जिनमें हास्य और व्यंग्य रस पर लिखी उनकी लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उसी काल में प्रफुल्ल चन्द्र ओझा ‘मुक्त’ ने भी अनेक लघुकथाएँ लिखीं, जो ‘सरस्वती’ जैसी ख्याति प्राप्त साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुईं । ‘सरस्वती’ के अतिरिक्त उस काल की अन्य अनेक पत्रिकाओं में भी उनकी लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं । पंडित जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के विषय में ललित मोहन शुक्ल लिखते हैं, ‘’द्विज जी ने 1929-30 में कुछ लघुकथाएँ लिखीं वे तत्कालीन पत्र–पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान प्राप्त करती रहीं ।’’
प्रेमचंद 1930 से अपनी पत्रिका ‘हंस’ में लघुकथाओं में प्रकाशन कर रहे थे । ‘हंस’, वर्ष 2 अंक 1–2 पृष्ठ 65 पर नेपाल के श्री विश्वेश्वर प्रसाद कोईराला की लघुकथा ‘अपनी ही तरह’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । इसी तरह की एक अन्य लघुकथा बालकृष्ण बलदुवा की ‘भूलने दे’ शीर्षक से उसी अंक के पृष्ठ 91 पर प्रकाशित हुई थी । अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद की पत्रकारिता’ के पृष्ठ 47 पर डॉ सरदार सुरेन्द्र सिंह लिखते हैं -वस्तुत: लघुकथा का प्रचलन प्रेमचंद के ‘हंस’ ने ही किया । सुरेन्द्र सिंह की इस बात से सहमत होना आसान नहीं है इसलिए कि इससे पूर्व 1874 में ‘बिहार–बन्धु’ ‘लघुकथा’ नाम से ही लघुकथाएँ प्रकाशित करता रहा है किन्तु सुरेन्द्र जी के इस उद्धरण से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्रेमचंद लघुकथाओं को लघुकथा शीर्षक यानी स्तंभ के अन्तर्गत प्रकाशित कर रहे थे । लघुकथा हेतु यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि । लगभग इसी काल में यानी 1935 ई में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री भी इस विधा के विकास में अपना योगदान दे रहे थे । उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में मुझसे (डॉ सतीशराज पुष्करणा) कहा था-“संभवत: 1935 से 1955 ई के बीच की अवधि में लगभग 70-80 लघुकथाएँ लिखीं । उन्होंने और आगे बताया कि उनकी एक सौ एक लघुकथाएँ ‘चलन्तिका’ नामक लघुकथा–संग्रह में संगृहीत हैं, जो अभी तक अप्रकाशित है ।
इसके पश्चात् तो लघुकथा शनै: शनै: विकास की यात्रा तय करती रही । प्राय: लघुकथाएँ आदर्शों की बातें करती रही । ऐसे में जो कथाकार सक्रिय रहे उनमें माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, जयशंकर ‘प्रसाद’, प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, रामधारी सह ‘दिनकर’, रामेश्वरनाथ तिवारी, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, बैकुण्ठ मेहरोत्रा, रावी, श्रीपतराय, कामताप्रसाद सह ‘काम’, शांति मेहरोत्रा, राम दहिन मिश्र इत्यादि प्रमुख हैं ।
लघुकथा के विकास में एक पड़ाव सन् 1942 में तब आया जब बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ ने लघुकथा को परिभाषित किया । यह परिभाषा बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ की चर्चित पुस्तक ‘साहित्य–साधना की पृष्ठभूमि’ के पृष्ठ 267 पर प्रकाशित है । फिर इसी परिभाषा को लक्ष्मीनारायण लाल ने बहुत ज़रा–से हेर–फेर के साथ हिन्दी–साहित्य कोश, भाग.1 के पृष्ठ 740-741 पर प्रकाशित कराया ।
इस विकास–क्रम को रामवृक्ष बेनीपुरी, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, राधाकृष्ण, ज्योति–प्रकाश, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, आनंद मोहन अवस्थी, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, भृंग तुपकरी, डॉ ब्रजभूषण प्रभाकर, श्यामलाल ‘मधुप’, शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ , रामेश्वर नाथ तिवारी, श्याम नंदन शास्त्री, मधुकर गंगाधर, चन्द्र मोहन प्रधान इत्यादि कथाकारों ने आगे बढ़ाया ।
1962 में ‘कादम्बिनी’ में डॉ सतीश दुबे एवं डॉ कृष्ण कमलेश की लघुकथाओं से लघुकथा का पुनरुत्थान काल आरंभ होता है । आधुनिक लघुकथा का प्रथम पड़ाव वास्तव में ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ (संपादक : भगीरथ एवं रमेश जैन) से शुरू होता है । इसके प्रकाशन में सहयोग एवं दिशा–निर्देशन डॉ त्रिालोकी नाथ व्रजबाल का रहा । इस संग्रह की लघुकथाओं में पारंपरिक लघुकथाओं एवं आधुनिक लघुकथाओं का संगम मिलता है । इस संग्रह ने लघुकथा के लिए आगे का रास्ता बनाया जिसका प्रभाव लघुकथा के अगले पड़ाव डॉ शमीम शर्मा के सम्पादकत्व में 1983 में प्रकाशित ‘हस्ताक्षर’ में दिखा । इस संग्रह में परंपरागत लघुकथाएँ पीछे छूटती नज़र आईं और आधुनिक लघुकथाएँ अपना दमखम दिखाती सामने आईं । इस कृति में लघुकथाओं के साथ–साथ अनेक महत्त्वपूर्ण लेख भी प्रकाशित थे । ये सभी लेख जहाँ लघुकथा के इतिहास पर प्रकाश डाल रहे थे, वहीं कुछ लेख लघुकथा की शास्त्रीयता भी सिद्ध कर रहे थे । यों ‘हस्ताक्षर’ से पूर्व 1977 डॉ शंकर पुणतांबेकर के सम्पादकत्व में ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ का और इसके ठीक दो वर्षों पश्चात् ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ का प्रकाशन डॉ सतीश दुबे के संपादकत्व में हुआ । ये दोनों संकलन अपनी भूमिका में सफल रहे किन्तु वैचारिक स्तर पर कोई विशेष दिशा–निर्देश नहीं दे सके । हाँ ! 1978 में जगदीश कश्यप एवं महावीर जैन के सम्पादकत्व में ‘छोटी–बड़ी बातें’ प्रकाश में आया । इसकी लघुकथाएँ अपने काल के हिसाब से तो श्रेष्ठ थीं (किन्तु इसमें प्रकाशित लेख भी थे जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में उतने सफल नहीं हो सके जितना उन्हें ‘उस काल में’ होना चाहिए था । कारण वह काल ऐसा था जब लघुकथा अपनी पुरानी केंचुल उतारकर नयी केंचुल धारण कर रही थी, ऐसे में कुछ ऐसे ही लेखों की आवश्यकता थी जो नई–पुरानी लघुकथाओं के संध्किाल पर प्रकाश डालते तो भावी लघुकथा हेतु कुछ सार्थक दिशा प्राप्त हो पाती,जो न हो पाया ।यह कार्य ‘हस्ताक्षर’ (संपादक : डॉ शमीश शर्मा) ने किया ।
1983 ई में लघुकथा ने फिर एक अगले पड़ाव पर पहुँची जब डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में लघुकथा के आलोचना–पक्ष पर प्रकाश डालते लेखों का संकलन ‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ प्रकाशित हुआ । यह अपने ढंग की लघुकथा–जगत् में प्रथम पुस्तक थी । इसकी सर्वत्र चर्चा एवं प्रशंसा हुई । इस पुस्तक के लेखों ने भावी लघुकथा की दिशा लगभग तय कर दी और लघुकथा उस दिशा पर चलकर सफलता की मंजि़लें तय करने लगी । डॉ पुष्करणा के ही संपादकत्व में 1984 में ‘तत्पश्चात्’, ‘लघुकथा : सर्जन एवं समीक्षा’ , ‘लघुकथा की रचना–प्रक्रिया’, ‘लघुकथा : एक संवाद’, ‘अंधेरे के विरुद्ध का सौंदर्य शास्त्र’ तथा कृष्णानंद कृष्ण के संपादकत्व में प्रकाशित ‘लघुकथा : सर्जना एवं मूल्यांकन’ एवं उनके एकल लेखों का संग्रह ‘लघुकथा : दिशा एवं स्वरूप’ इत्यादि पुस्तकें प्रकाश में आईं । इन पुस्तकों में प्रकाशित लेखों के प्रभाव से लघुकथा–सृजन काफी निखरा ।
1984 में श्री चन्द्र भूषण सिंह ‘चन्द्र’ का दूसरा संग्रह ‘मिट्टी की गंध’ प्रकाश में आया जिसमें उनकी सैंत्तीस लघुकथाओं के अतिरिक्त कृष्णा कुमार सिंह का शोधपरक लेख तथा ‘नौवें दशक की लघुकथाओं पर एक दृष्टि’ के साथ–साथ 1980 से लेकर 1984 तक प्रकाशित लघुकथा–संग्रह, संकलन तथा उनके प्राप्ति स्थान दिए गए हैं जिससे यह कृति लघुकथा के विकास में एक पड़ाव के रूप में चर्चित हुई । 1985 में सिद्धेश्वर एवं तस्नीम के सम्पादकत्व में ‘आदमीनामा’ का प्रकाशन हुआ । जिसमें बिहार के ही आठ लेखकों की दस–दस लघुकथाएँ संकलित थीं । इन आठ लेखकों में डॉ सतीशराज पुष्करणा, चितरंजन भारती, निविड़जी शिवपुत्र, रामयतन प्रसाद यादव, सिद्धेश्वर, तारिक असलम ‘तस्नीम’ इत्यादि थे । इसमें एक लेख भी था जो किसी स्तर पर भी विचार करने को बाध्य नहीं करता था ।
इसी काल में अरविन्द एवं कृष्ण कमलेश के संयुक्त सम्पादकत्व में ‘लघुकथा : दशा एवं दिशा’ प्रकाशित हुई जिसकी लघुकथाएँ एवं विचार–पक्ष में दिए गए लेख काफीफी विचारोत्तेजक थे । अपने इन्हीं गुणों के कारण इस कृति को पर्याप्त ख्याति प्राप्त हुई । इस कृति ने अनेक नये एवं सशक्त हस्ताक्षर लघुकथा को दिये जो आज भी अपनी रचनाओं के कारण ख्यातिलब्ध हैं ।
1986 ई में ‘प्रत्यक्ष’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) लघुकथा में एक ऐसा पड़ाव था जिसने सृजन–पक्ष एवं विचार–पक्ष दोनों को न मात्र समृ( किया अपितु भावी लघुकथा में होने वाले परिवर्तनों की ओर भी संकेत किये जो लघुकथा के आकार एवं विषय–वस्तु पर केन्द्रित थे । जिसका प्रभाव यह हुआ कि लघुकथा के आकार में विस्तार होना आरंभ हुआ और घिसे–पिटे विषयों को छोड़कर इसे नये विषयों के साथ–साथ लघुकथा को संवेदनात्मक बनाने पर भी चर्चा थी । इसी काल में ‘आयुध’ (सं कमल चोपड़ा) ‘आतंक’ (सं नंदल हितैषी एवं संयोजक ध्ीरेन्द्र शर्मा) , ‘हालात’ एवं ‘प्रतिवाद’, (सं कमल चोपड़ा) , ‘पड़ाव और पड़ताल’ (सं मधुदीप) , रमेश कुमार शर्मा ‘अन्जान’ का शोध–प्रबंध ‘हिन्दी लघुकथा : स्वरूप एवं इतिहास’ 1989 में प्रकाशित हुआ । इन सारी कृतियों ने लघुकथा–जगत् में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की । ये सारी कृतियाँ अपने आप में नई एवं दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक–दूसरे की पूरक सिद्ध हुई हैं । इससे लघुकथा–सृजन एवं समीक्षा दोनों के ध्रातल पर समृद्ध हुईं । अब सृजन एवं समीक्षा–कार्य साथ–साथ विकास पाने लगे ।
लघुकथा–जगत् में एक नया मोड़ तब आया जब 1985 से क्रमश: ‘कथानामा’, ‘कथानाम’–2 एवं ‘कथानामा’–3 बलराम के संपादकत्व में प्रकाशित हुए । इनमें दस–दस लघुकथाकारों की सचित्र–परिचय के दस–दस लघुकथाएँ एवं इनमें एक–एक गंभीर लेख प्रकाशित थे । मूल्यांकन किए जाने की दृष्टि से बलराम का यह कार्य कापफी सराहा गया । पिफर बलराम यहीं नहीं रुके उन्होंने पिफर क्रमश: ‘हिन्दी लघुकथा कोश’ (1977) ‘भारतीय लघुकथा कोश 1–2’ (1993) और ‘लघुकथा विश्व–कोश 1.4’ (1995) इनके संपादन में प्रकाशित हुए । इनमें लघुकथाएँ एवं लेख दोनों साथ–साथ प्रकाशित थे । इसें संदेह नहीं बलराम के इस कार्य ने लघुकथा के विकास एवं सम्मान में कापफी वृद्धि की । 1990 ई में डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में 730 पृष्ठों की एक बड़ी पुस्तक ‘कथादेश’ प्रकाश में आयी । इस पुस्तक में 25 कथाकारों की 25–25 लघुकथाएँ, चित्र, परिचय एवं लेखक का वक्तव्य के साथ प्रकाशित हुए । इसमें एक खंड ‘विचार–पक्ष’ का भी था जिसें अनेक महत्त्वपूर्ण लेख थे । प्रो निशांतकेतु का चर्चित लेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता’ भी इसी पुस्तक में शामिल था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक ने पाठकों एवं लघुकथा–लेखकों को सोचने–समझने हेतु विवश किया कि वे अपने भीतर स्वयं अपने रचना–कर्म का ईमानदारी से मूल्यांकन करें और वांछित सुधार हेतु चर्चा–परिचर्चा करें, बात करें, बहस करें, संवाद स्थापित करें । इस दिशा में जगह–जगह पर गोष्ठियों का सिलसिला बढ़ा जिसके सार्थक परिणाम सामने आये कि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के तत्त्वावधान में 1988 ई से 2012 ई पचीस अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन, पटना में आयोजित हुए जिनमें फतुहा (1991) , बरेली (2000) और हिसार (2001) में हुए । देश के अन्य अनेक स्थानों पर गोष्ठियाँ, संगोष्ठियाँ और सम्मेलनों का सिलसिला चल पड़ा । फ़रवरी 2008 में रायपुर में विश्व लघुकथा सम्मेलन भी हुआ और लघुकथा विकास की राह पर और आगे बढ़ी ।
एक दौर यह भी आया जब विभिन्न राज्यों से अपने–अपने राज्य के रचनाकारों को लेकर संकलन संपादित किए गए जिसमें ‘बिहार की हिन्दी लघुकथाएँ’ एवं ‘बिहार की प्रतिनिधि् हिन्दी लघुकथाएँ’ (दोनों के संपादक डॉ सतीशराज पुष्करणा) , ‘हरियाणा का लघुकथा–संसार’ (संपादक: रूप देवगुण एवं राजकुमार निजात) , ‘राजस्थान का लघुकथा–संसार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) जैसे उल्लेखनीय संकलन प्रकाश में आए । इनके अतिरिक्त 2004 में डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संपादकत्व में ‘कल के लिए’ प्रकाश में आया जिसमें हिन्दी की प्राय: तमाम महिला लघुकथा–लेखिकाओं की लघुकथाओं के साथ स्वयं संपादक का लेख ‘हिन्दी–लघुकथा के विकास में महिलाओं का योगदान’ प्रकाशित था । इसी वर्ष ‘राजस्थान की महिला लघुकथाकार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) प्रकाश में आया । ये सभी संकलन इसीलिए महत्त्वपूर्ण थे कि ये एक जगह, एक ही राज्य एवं महिलाओं की रचनाओं के साथ–साथ इन पुस्तकों में प्रकाशित लेख लघुकथा के इतिहास पक्ष को पर्याप्त बल दे रहे थे । इस दिशा में बलराम के संपादकत्व में भी पर्याप्त कार्य हुआ है । लघुकथा–इतिहास–लेखन के क्रम में ये सारी कृतियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकेंगी ।
लघुकथा–जगत् में पिफर एक पड़ाव ऐसा आया जिसमें एक विषय को केन्द्र में रख कर वैसी ही लघुकथाओं के संकलन प्रकाशित किए गए जिनमें सुकेश साहनी के संपादकतत्व में ‘स्त्री–पुरुष सम्बन्धोंकी लघुकथाएँ’ (1992) , ‘, ‘देह–व्यापार की लघुकथाएँ’ (1997) , ‘महानगरों की लघुकथाएँ’ (1998) , बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ (2000) तथा रूप देवगुण के संपादन में ‘शिक्षा–जगत् की लघुकथाएँ’ (1993) में प्रकाशित हुईं । नि:संदेह इन सभी पुस्तकों में ‘हिन्दी लघुकथा : उलझते–सुलझते प्रश्न’ भी अपने ढंग की निराली पुस्तक थी । इसी क्रम में 2000 में कृष्णानंद कृष्ण के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘शताब्दी शिखर की हिन्दी–लघुकथाएँ’ प्रकाश में आई । इन पुस्तकों ने जहाँ पूर्व सदी की लघुकथाओं को शामिल रखा, वहीं इन लघुकथाओं के मूल्यांकन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया । इन सभी पुस्तकों के सम्पादकीय अपनी विशेष अहमियत रखते थे ।
2007 में डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ एवं डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संयुक्त संपादकत्व में ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ प्रकाश में आया इसमें लघुकथा के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर केन्द्रित दस लेख तथा एक संपादकीय था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक की समीक्षा में डॉ शत्रुघ्न प्रसाद ने लिखा–यह सौंदर्यशास्त्र नहीं, बल्कि लघुकथा का शास्त्र है । 2008 में डॉ सतीशराज पुष्करणा प्रणीत ‘लघुकथा–समीक्षा : एक दृष्टि’ प्रकाश में आई । इस कृति में डॉ पुष्करणा के बारह ऐसे लेख थे जो 2005 के वर्ष में कृष्णानंद कृष्ण, डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, रामयतन प्रसाद यादव, सी रा प्रसाद, उर्मिला कौल, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज इत्यादि लघुकथाकारों के हुए एकल–पाठ के अवसर पर पढ़े गए डॉ पुष्करणा के लेखों का संग्रह है, जिसके अन्त में कई दर्जन उत्कृष्ट लघुकथाएँ भी दी गयी थीं । यह भी अपने आपमें एक प्रयोग था, जो लघुकथा–समीक्षा–कार्य को बल एवं विकास देता है ।
डॉ रामकुमार घोटड़ ने भी लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । उनके संपादकत्व में ‘प्रतीकात्मक–लघुकथाएँ’ (2006) , ‘पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएँ’ (2006) , ‘अपठनीय लघुकथाएँ’ (2006) ‘दलित समाज की लघुकथाएँ’ (2008–2011) , ‘भारतीय हिन्दी लघुकथाएँ’ (2010) , ‘लघुकथा–विमर्श’ (2009) ‘राजस्थान के लघुकथानगर’ (2010) , ‘भारत का हिन्दी लघुकथा–संसार’ (2011) ‘कुखी पुकारे’ (2011) ‘हिन्दी की समकालीन लघुकथाएँ (2012) ‘आजाद़ भारत की लघुकथाएँ’ (2012) इत्यादि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें क्या है ? यह पुस्तकों के नाम से ही स्पष्ट है । इन पुस्तकों से जहाँ शोधार्थी लाभान्वित होंगे ,वहीं लघुकथा पर विचार करने वालों को विचार करने की दृष्टि से विभिन्न श्रेणियों की लघुकथा एकत्र करने में सुविधा होगी । लघुकथा के इतिहास–लेखन में भी ये पुस्तकें सहायक होंगी । ये सभी पुस्तकें ऐसी हैं जो लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन गयी हैं । ‘इन सब उल्लेखनीय पड़ावों के अतिरिक्त लघुकथा के विकास में अन्य जो महत्त्वपूर्ण पड़ाव सि( हुए, उनमें ‘मिनीयुग’ (सं जगदीश कश्यप) , ‘आघात’ बाद में ‘लघुआघात’ (सं विक्रम सोनी) , ‘दिशा’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) और अब ‘संरचना’ (सं डॉ कमल चोपड़ा) इत्यादि लघुकथा को निर्मित पत्रिकाओं की भूमिका की भी अवहेलना करती । इसी क्रम यह बताना भी है कि विगत कई वर्षों से इंटरनेट पत्रिका ‘लघुकथा डॉट काम’ एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी महत्त्वपूर्ण पड़ाव के रूप में बहुत बढ़ा कार्य कर रही है । इस प्रकार के अन्य अनेक कार्यों की अपेक्षा है । और अन्त में इस पुस्तक यानी ‘कही–अनकही’ की चर्चा भी प्रासंगिक प्रतीत होती है, कारण यह पुस्तक हिन्दी लघुकथा की विकास–यात्र का नया एवं उल्लेखनीय पड़ाव है । इसमें श्री चन्द्र की लघुकथाओं के अतिरिक्त विचार करने योग्य ऐसी पर्याप्त सामग्री दी गई है ,जिससे विचार पर आगे कार्य करने वालों को पर्याप्त मार्ग–दर्शन सहज ही प्राप्त हो सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।

सम्पर्क : पुष्करणा  ट्रेडर्स
‘लघुकथानगर’
महेन्द्रु, पटना–800006
मो : 08298443663

 
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लघुकथा का शीर्षक



डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र
तत्त्व शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये छत्तीस होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या पच्चीस होती है। रसायनशास्त्र के अुनसार मूल पदार्थजिसे किसी भ्ज्ञी रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानवशरीर की संरचना भी पाँच तत्त्वों के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व  हैंआग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार कथाकी संरचना कथानक,वातावरण,कथोपकथन,चरित्रचित्रण,भाषाशैली और उपसंहार। ये छह तत्त्व  ही उपन्यास,कहानी और लघुकथा  की भी संरचना करते हैं। यानी इन छ तत्त्वों  से ही प्राय: सभी कथात्मक विधाओं की रचना संभव हो पाती है। यह बात अलग है कि कथानक यानी कथावस्तु (जिस रूप में भी हो) के अनुसार ही इन तत्त्वों  का प्रयोग होता ही है। किन्तु लघुकथा  में एक तत्त्व  और है, जो कि इसको सही स्वरूप में प्रस्तुत करने में सहायक होता हैवह है शीर्षक
आकारगत लघुता लघुकथा का प्रमुख गुण है। अत: लावता हेतु इसमें बहुत कुछ संकेत में ही कहा जाता है। संकेत भी ऐसा कि सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई संकट न हो। यही कारण है कि लघुकथा  लिखने से अधिक समय कभीकभी उसका शीर्षक रखने में लग जाता है। तात्पर्य यह है कि शीर्षकरखना भी एक कौशल है। रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथसाथ, आकर्षक, विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए कि पाठक तुरन्त उसे पढ़ना आरंभ कर दे। इसके अतिरिक्त लघुकथा  में कथाकार शीर्षक कई प्रकार से रखते हैं। कुछ कथाकार तो लघुकथा  के लक्ष्यया परिणामको ध्यान में रखते हुए शीर्षक देते हैं। मगर यह ढंग काफी पुराना है। इस प्रकार के शीर्षक अक्सर दृष्टातों, बोधकथाओं, लोककथाओं, नीतिकथाओं या फिर मुद्रित दंत कथाओं में देखने को मिलते हैं। इनका शीर्षक एक प्रकार से कथा का उद्देश्य बता देता है, यानी कथा के माध्यम से जो उपदेश दिया जा रहा है, उसकी ओर ध्यान आकर्षित करता है। वर्तमान में ऐसे शीर्षकों का न तो प्रचलन है, और न ही पाठक पसंद करते हैं। इस प्रकार के शीर्षकों में एक कमी और होती है किये पाठकों की जिज्ञासा को बिना लघुकथा  पढ़े ही शांत कर देते है।
लघुकथा  का सौंदर्य शास्त्र
पाठक शीर्षक देखते ही यह समझ जाता है कि कथाकार क्या कहना चाहता है, अत: पढ़ने का सारा आनंद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी एक लघुकथा  परिधि से बाहर’(अक्टूबरदिसम्बर,99) के पृष्ठ–43 पर प्रकाशित दो टाँगों वाला जानवर’ (डॉ0सुरेन्द्र वर्मा) को देखा जा सकता है। दो टाँगों वाला जानवर का सीधा और स्पष्ट अर्थ है आदमी । शीर्षक पढ़ते ही जिज्ञासा शांत हो जाती है, तो रचना का आनंद जाता रहता है। अत: ऐसे शीर्षक से बचना ही लघुकथा  हेतु हितकर होता है।
कभीकभी कथाकार किसी वस्तुया स्थानको भी अपनी लघुकथा  का शीर्षक बनाते हैं। इस संदर्भ में सुकेश साहनी की लघुकथाएँ आईना’, ‘चश्माऔर खरबूजा’ (वर्तमानसं.डॉ. सतीशराज पुष्करणा) पृष्ठ सं. 15,14,और 12 पर प्रकाशित इन लघुकथा ओं की विशेषता यह है कि ये शीर्षक व्यंजनाशक्ति के प्रतीक रूप में उपस्थित हैं। सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई कठिनाई नहीं होती। लघुकथा  में शीर्षक रखने की यह पद्धति सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस क्रम में आटे का ताजमहल’ (डॉ.सुरेन्द्र साह)  कटी हु पतंग’ (मुकेश शर्मा), ‘चादर मैली हो गई’ (डॉ.देवेन्द्रनाथ साह), ‘नकाबएवं आईना’ (डॉ.सतीशराज पुष्करणा) इत्यादि ऐसी अनेक  लघुकथाएँ उपलब्ध हैं। व्यंजनाशक्ति का उपयोग अन्य लघुकथा ओं में भी हुआ हैयह बात अलग है कि उनके शीर्षक वस्तुया स्थानका नाम न होकर अन्यअन्य हैं। व्यंजनाशक्ति लघुकथा  के प्राण हैं। इस प्रकार के शीर्षक में प्राय: चर्चित कथाकार लिखते ही हैं। इस संदर्भ में डॉ. परमेश्वर गोयल की लघुकथा  मानसिकताको देखा जा सकता है। इस लघुकथा  में कुत्ता  कहीं से उड़ाकर रोटी खा रहा होता है, तो बिल्ली उसे ललचाई दृष्टि से देखती है, कुत्ता  उसे रोटी खाने हेतु आमंत्रित करता है। बिल्ली उसकी नज़रों में झाँकते कपट को देखकर बोल पड़ती है–‘‘स्साला! कुत्ता  भी आदमी की सारी आदतें सीख गया है।’’...गर्दन को झटकते हुए वह आगे बढ़ गई। इसमें मानसिकताशीर्षक कुत्ते  की मानसिकता के साथसाथ आदमी की मानसिकतापर भी चोट करता है। इस प्रकार यह शीर्षक लघुकथा  की ऊँचाई‍ प्रदान कर जाता है और इस लघुकथा  की गिनती श्रेष्ठ लघुकथा ओं में सहज ही होने लगती है। जबकि मानसिकताशब्द की चर्चा पूरी लघुकथा  में कहीं नहीं हुई है। तात्पर्य यह है कि यह शीर्षक लघुकथा  की आत्मा को स्पर्श करता है।
सुकेश साहनी की दो लघुकथाएँ  इमीटेशनएवं वापसीभी इस संदर्भ में सटीक बैठती हैं। ये दोनों शीर्षक ही इन दोनों लघुकथाओं की आत्मा को स्पर्श करते हुए अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। वापसी में एक बच्चे के कथन पर एक अभियन्ता गलत करते हुए पुन: सच्चाई एवं ईमानदारी के रास्ते पर वापस आता है। इस प्रकार की लघुकथाओं में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  भविष्यनिधिमहत्त्वपूर्ण है। एक पिता को अपने पैर स्वयं दबाते देखकर पुत्र पिता के पैर दबाने लगता है। पैर दबातेदबाते वह सोचता  है कि आज मैं जैसे पौधे लगाऊँगा, कल उन पर फल भी वैसे ही आएँगे। आज मेरे बच्चे मुझे पिता जैसे करता देखेंगे, कल वे भी मेरे साथ वैसा ही करेंगे। अपने भविष्य के लिए यह बहुत अनिवार्य है कि वह अपने वृद्धावस्था में अपने बच्चों से जैसी अपेक्षा रखता है, उसे अपने मातापिता के साथ भी वैसा ही करना चाहिए। इस लघुकथा  का भविष्यनिधि से श्रेष्ठ शीर्षक हो ही नहीं सकता। इस लघुकथा  में वह बात पूरी लघुकथा  में सम्प्रेषित नहीं हो पातीउसे यह शीर्षक न केवल सम्प्रेषित है, अपितु लघुकथा  को श्रेष्ठता भी प्रदान करता है। यह शीर्षक भी लघुकथा  की आत्मा को स्पर्श करता है और उसकी आत्मा की अभिव्यक्ति को सहज ही सम्प्रेषित कर जाता है। इस क्रम में कृष्णानन्द कृष्ण की लघुकथा  संस्कारका भी अवलोकन किया जा सकता है। पति के अत्याचारों के कारण पत्नी को अपने पुत्र के साथ घर छोड़ना पड़ता है। एक लम्बे अन्तराल पर पति पत्नी से मिलने आता है ताकि पुन: साथसाथ रह सकें। बेटा विरोध करता है ;किन्तु माँ कहती है, ‘नहीं अनिल, नहीं। तुम्हें बीच में बोलने की आवश्यकता नहीं है। ये पहले भी तुम्हारे पापा थे, आज भी हैं। चलो पैर छूकर प्रणाम करो।’’ नायिका का यह सम्वाद भारतीय संस्कार को प्रत्यक्ष करता है। यही इस शीर्षक की सार्थकता है। कोई अन्य शीर्षक सटीक नहीं हो सकता। इसमें भी सम्प्रेषण का कार्य शीर्षक ही करता है कि वस्तुत: लेखक क्या कहना चाहता है।....  क्या संदेश देना चाहता है। इस लघुकथा  के औचित्य को भी यह शीर्षक ही स्पष्ट करता है।
इंदिरा खुराना की लघुकथा  कुण्ठाभी इस मायने में महत्त्वपूर्ण है। इस रचना में धृतराष्ट्र को प्रतीक बनाकर एक अंधे व्यक्ति के मनोविज्ञान को दर्शाया गया है। उसे लगता है कि मेरे अतिरिक्त सभी उसकी पत्नी के रूपसौन्दर्य का रसपान करते हैं। वह कहता है–‘‘जब तुम्हारी दृष्टि किसी अन्य वीर, बलिष्ठ, सुन्दरतेजस्वी युवक पर पड़ेगी तो उस समय मैं तुम्हें कितना दयनीय, असहाय, नगण्य प्रतीत होऊँगा।’’ धृतराष्ट्र का यह संवाद ही इस लघुकथा  के प्राण है। कुण्ठा से बेहतर शायद इसका अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता। इसी क्रम में नरेन्द्र प्रसाद नवीनकी लघुकथा  साम्राज्यवाद को रखा जा सकता है।
कुछ योरोपीय एवं अमरीकी लेखक वाक्यों या वाक्यांशों में अपनी रचना का शीर्षक रखते हैं। हिन्दी में उपन्यास एवं कहानी में इस प्रकार के शीर्षकों की भरमार दिखाई पड़ती है। किन्तु लघुकथा  में ऐसा कम ही देखने में आता है। डॉ0 कमल चोपड़ा की लघुकथा  खेलने के दिन’, ‘मुन्ने ने पूछाऔर जो बाकी बचा हैको सहज ही देखापरखा जा सकता है। जो बाकी बचा हैमें एक प्रवासी मज़दूर का बेटा गाँव में मर जाता है और वह गाँव जा नहीं पाता। वह सोचता है उसके जाने का दुख तो उसे है, मगर जाने वाला तो चला गया। अब मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा। खर्चा ऊपर से होगा। दो ढाई महीने के बाद फसलों की कटाई के अवसर पर जाएगा तो कह देगा कि चिट्ठी नहीं मिलीअब बाकी जो दो बच्चे हैं, उनके लिए तो कुछकुछ जमाजोड़ कर लूँ यह शीर्षक भी ठीक हैकिन्तु इस रचना का दूसरा शीर्षक भी हो सकता था। मगर यह शीर्षक एक अतिरिक्त आकर्षण पैदा करता है। मुन्ने ने पूछाये शीर्षक भी महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में इस लघुकथा  की कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य होंगीमुन्ने की धोईसफाई करने के बाद वह उसे निक्कर पहनाने लगी तो मुन्ने ने कहामम्मी आप मेरी धोई तो बड़े प्यार से करती हैं और दादी जी की सफाई करते वक्त बड़बड़बड़बड़ करती हैं–‘खेलने के दिनभी बहुत मार्मिक लघुकथा  है। इसमें एक रईस अपने घर के फालतू खिलौने को गरीबों की बस्ती में मुफ्त बाँटने जाता है, तो एक बच्चा कहता है–‘‘बाबू जी! खिलौने लेकर क्या करेंगे? मैं फैक्ट्री में काम करता हूँ, वहीं पर रहता हूँ। सुबह मुँह अँधेरे से देर रात तक काम करता हूँ, किस वक़्त खेलूँगा? आप ये खिलौने किसी बच्चे को दे देना...। यह शीर्षक इस लघुकथा  हेतु बहुत ही सटीक है। पूरी लघुकथा  जो बात नहीं कह पातीयह शीर्षक वह सब कुछ कह जाता है, जो कथाकार कहना चाहता है।
कुछ शीर्षक व्यंग्यात्मक होते हैं। प्रत्यक्षत: ऐसी लघुकथा एँ नकारात्मक संदेश देती प्रतीत होती है, किन्तु वस्तुत: उनमें से ध्पनित होता व्यंग्यजो उसमें से सकारात्मक संदेश सम्प्रेषित करता है। इस प्रकार की व्यंग्यापरक लघुकथाएँ आठवें दशक में थोक के भाव में लिखी गईंप्रकाशित भी हुई। उनमें भी कुछ श्रेष्ठ लघुकथाएँ सामने आईं थीं और आज भी ऐसी व्यंग्यपरक लघुकथाएँ कम ही सही, मगर लिखी जाती हैं। ऐसी लघुकथाओं में डॉ. परमेश्वर गोयल की युगधर्मको देखा जा सकता है। एक ग्रामीण बैंक के बाबू से कहता है–‘‘बैल हेतु कर्ज़ के लिए कई महीने हुए दरखास्त दिए। बाद वालों को कर्ज मिल भी गया, पर मुझे अब तक नहीं मिला।’’ इस पर काबू कहता है–‘‘रामभरोसे! दुनिया में जीना है, तो दुनियादारी सीखो केवल हाथ जो़ड़ने से, देवता भी खुश नहीं होते...प्रसाद भी चढ़ाना पड़ता है, समझे?’’
इस क्रम में रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा  संस्कारको भी देख जा सकता है। इसमे कुत्ते एवं साहब के बेटे में विवाद होता है। कुत्ता  साहब के बेटे को व्यंग्यपरक बाणों से छलनी करता है। उसपर साहब का बेटा बिगड़ उठता है और कुत्ता  हँसते हुए कहता है, ‘‘अपनेअपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकरचाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर जरूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता  इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।
जब कभी व्यंग्य स्वाभाविक रूप से लघुकथा  में आता है, तो लघुकथा  को श्रेष्ठता प्रदानकर जाता है। यह लघुकथा  भी इस कथन का सटीक उदाहरण है। लघुकथा  में शीर्षक के महत्त्व  एवं उसकी सार्थकता को सिद्ध करते हुए कुछ उदहारण सटीक होंगे। इस संदर्भ में सत्यनारायण नाटे की एक लघुकथा  अपने देशका अवालोकन किया जा सकता है। एक व्यक्ति भिखारी की पूरी देह पर उभरे घावों को देखकर पूछता है कि तुम इन घावों का इलाज क्यों नहीं करवाते हो? भिखारी उत्तर में कहता है कि ‘‘घाव एकाध हो, तो इलाज भी करवाऊँ, मगर जहाँ पूरी देह घावों से भरी होउसका क्या किया जा सकता है?’’
इस क्रम में डॉ. सतीशराज पुष्करणा  की लघुकथा  बोफोर्स काण्डको भी अवलोकित किया जा सकता है। इस संदर्भ में निशान्तर का यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है–‘‘ लघुकथा  का शीर्षक उसके शिल्प के अन्तर्गत आता है, यह बात डॉ.पुष्करणा की लघुकथओं से सिद्ध होती है। कई बार तो इनकी लघुकथा ओं का शीर्षक एक स्वतंत्र एवं केन्द्रीय प्रतीक बनकर अपनी महत्ता  को स्थापित करता है। यह शीर्षक लघुकथा  का ऐसा अभिन्न अंग बन जाता है, जैसे कि वह सम्प्रेषण की कुंजी हो। डॉ. पुष्करणा की ऐसी लघुकथाओं में प्रमुख हैं बोफोर्स काण्डऔर सत्ता  परिवर्तन। ये दोनों लघुकथा एँ ऐसी हैं कि यदि इनके शीर्षकों को न पढ़ा जाए अथवा इन पर ध्यान न दिया जाए तो उनका कथन स्पष्ट नहीं होता, अन्यथा उसमें वह धार या चमक महसूस नहीं होती और लघुकथा  के शिल्प का एक आवश्यक अंग बनकर उभरा है। डॉ. पुष्करणा की ही एक लघुकथा  अपाहिजभी अवलोकन की आकांक्षा रखती है। लघुकथा  इस प्रकार है
पश्चिमी रंग में रंगते जा रहे एक पुत्र ने किसी तरह साहस जुटाकर अपने भारतीय रंग में रंगे पिता से कहा, ‘‘पापा! मैं शादी करना चाहता हूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मुझे प्यार हो गया है।’’
‘‘बेटे! पहले अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, फिर जो जी में आए करना।’’
‘‘पापा! अगर अपने पैरों पर खड़ा नहीं भी हो सका हूँ, तो क्या हुआ....वह तो अपने पैरों पर खड़ी है।’’
इस लघुकथा  को पढ़कर देखें और स्वयं सोचें, इसका अन्य भी सटीक शीर्षक हो सकता है? शायद नहीं हो सकता। इस शीर्षक के बिना इस लघुकथा  का न तो कोई मतलब है, और न ही कोई औचित्य।
तात्पर्य यह है कि शीर्षक का जितना महत्त्व  लघुकथा  में है, उतना अन्य किसी विधा में नहीं है। लघुकथा  में शीर्षक शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है यानी लघुकथा  का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व  है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता।
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