Friday, March 29, 2013

लघुकथा का शीर्षक



डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र
तत्त्व शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये छत्तीस होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या पच्चीस होती है। रसायनशास्त्र के अुनसार मूल पदार्थजिसे किसी भ्ज्ञी रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानवशरीर की संरचना भी पाँच तत्त्वों के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व  हैंआग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार कथाकी संरचना कथानक,वातावरण,कथोपकथन,चरित्रचित्रण,भाषाशैली और उपसंहार। ये छह तत्त्व  ही उपन्यास,कहानी और लघुकथा  की भी संरचना करते हैं। यानी इन छ तत्त्वों  से ही प्राय: सभी कथात्मक विधाओं की रचना संभव हो पाती है। यह बात अलग है कि कथानक यानी कथावस्तु (जिस रूप में भी हो) के अनुसार ही इन तत्त्वों  का प्रयोग होता ही है। किन्तु लघुकथा  में एक तत्त्व  और है, जो कि इसको सही स्वरूप में प्रस्तुत करने में सहायक होता हैवह है शीर्षक
आकारगत लघुता लघुकथा का प्रमुख गुण है। अत: लावता हेतु इसमें बहुत कुछ संकेत में ही कहा जाता है। संकेत भी ऐसा कि सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई संकट न हो। यही कारण है कि लघुकथा  लिखने से अधिक समय कभीकभी उसका शीर्षक रखने में लग जाता है। तात्पर्य यह है कि शीर्षकरखना भी एक कौशल है। रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथसाथ, आकर्षक, विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए कि पाठक तुरन्त उसे पढ़ना आरंभ कर दे। इसके अतिरिक्त लघुकथा  में कथाकार शीर्षक कई प्रकार से रखते हैं। कुछ कथाकार तो लघुकथा  के लक्ष्यया परिणामको ध्यान में रखते हुए शीर्षक देते हैं। मगर यह ढंग काफी पुराना है। इस प्रकार के शीर्षक अक्सर दृष्टातों, बोधकथाओं, लोककथाओं, नीतिकथाओं या फिर मुद्रित दंत कथाओं में देखने को मिलते हैं। इनका शीर्षक एक प्रकार से कथा का उद्देश्य बता देता है, यानी कथा के माध्यम से जो उपदेश दिया जा रहा है, उसकी ओर ध्यान आकर्षित करता है। वर्तमान में ऐसे शीर्षकों का न तो प्रचलन है, और न ही पाठक पसंद करते हैं। इस प्रकार के शीर्षकों में एक कमी और होती है किये पाठकों की जिज्ञासा को बिना लघुकथा  पढ़े ही शांत कर देते है।
लघुकथा  का सौंदर्य शास्त्र
पाठक शीर्षक देखते ही यह समझ जाता है कि कथाकार क्या कहना चाहता है, अत: पढ़ने का सारा आनंद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी एक लघुकथा  परिधि से बाहर’(अक्टूबरदिसम्बर,99) के पृष्ठ–43 पर प्रकाशित दो टाँगों वाला जानवर’ (डॉ0सुरेन्द्र वर्मा) को देखा जा सकता है। दो टाँगों वाला जानवर का सीधा और स्पष्ट अर्थ है आदमी । शीर्षक पढ़ते ही जिज्ञासा शांत हो जाती है, तो रचना का आनंद जाता रहता है। अत: ऐसे शीर्षक से बचना ही लघुकथा  हेतु हितकर होता है।
कभीकभी कथाकार किसी वस्तुया स्थानको भी अपनी लघुकथा  का शीर्षक बनाते हैं। इस संदर्भ में सुकेश साहनी की लघुकथाएँ आईना’, ‘चश्माऔर खरबूजा’ (वर्तमानसं.डॉ. सतीशराज पुष्करणा) पृष्ठ सं. 15,14,और 12 पर प्रकाशित इन लघुकथा ओं की विशेषता यह है कि ये शीर्षक व्यंजनाशक्ति के प्रतीक रूप में उपस्थित हैं। सम्प्रेषणीयता में कहीं कोई कठिनाई नहीं होती। लघुकथा  में शीर्षक रखने की यह पद्धति सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस क्रम में आटे का ताजमहल’ (डॉ.सुरेन्द्र साह)  कटी हु पतंग’ (मुकेश शर्मा), ‘चादर मैली हो गई’ (डॉ.देवेन्द्रनाथ साह), ‘नकाबएवं आईना’ (डॉ.सतीशराज पुष्करणा) इत्यादि ऐसी अनेक  लघुकथाएँ उपलब्ध हैं। व्यंजनाशक्ति का उपयोग अन्य लघुकथा ओं में भी हुआ हैयह बात अलग है कि उनके शीर्षक वस्तुया स्थानका नाम न होकर अन्यअन्य हैं। व्यंजनाशक्ति लघुकथा  के प्राण हैं। इस प्रकार के शीर्षक में प्राय: चर्चित कथाकार लिखते ही हैं। इस संदर्भ में डॉ. परमेश्वर गोयल की लघुकथा  मानसिकताको देखा जा सकता है। इस लघुकथा  में कुत्ता  कहीं से उड़ाकर रोटी खा रहा होता है, तो बिल्ली उसे ललचाई दृष्टि से देखती है, कुत्ता  उसे रोटी खाने हेतु आमंत्रित करता है। बिल्ली उसकी नज़रों में झाँकते कपट को देखकर बोल पड़ती है–‘‘स्साला! कुत्ता  भी आदमी की सारी आदतें सीख गया है।’’...गर्दन को झटकते हुए वह आगे बढ़ गई। इसमें मानसिकताशीर्षक कुत्ते  की मानसिकता के साथसाथ आदमी की मानसिकतापर भी चोट करता है। इस प्रकार यह शीर्षक लघुकथा  की ऊँचाई‍ प्रदान कर जाता है और इस लघुकथा  की गिनती श्रेष्ठ लघुकथा ओं में सहज ही होने लगती है। जबकि मानसिकताशब्द की चर्चा पूरी लघुकथा  में कहीं नहीं हुई है। तात्पर्य यह है कि यह शीर्षक लघुकथा  की आत्मा को स्पर्श करता है।
सुकेश साहनी की दो लघुकथाएँ  इमीटेशनएवं वापसीभी इस संदर्भ में सटीक बैठती हैं। ये दोनों शीर्षक ही इन दोनों लघुकथाओं की आत्मा को स्पर्श करते हुए अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। वापसी में एक बच्चे के कथन पर एक अभियन्ता गलत करते हुए पुन: सच्चाई एवं ईमानदारी के रास्ते पर वापस आता है। इस प्रकार की लघुकथाओं में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  भविष्यनिधिमहत्त्वपूर्ण है। एक पिता को अपने पैर स्वयं दबाते देखकर पुत्र पिता के पैर दबाने लगता है। पैर दबातेदबाते वह सोचता  है कि आज मैं जैसे पौधे लगाऊँगा, कल उन पर फल भी वैसे ही आएँगे। आज मेरे बच्चे मुझे पिता जैसे करता देखेंगे, कल वे भी मेरे साथ वैसा ही करेंगे। अपने भविष्य के लिए यह बहुत अनिवार्य है कि वह अपने वृद्धावस्था में अपने बच्चों से जैसी अपेक्षा रखता है, उसे अपने मातापिता के साथ भी वैसा ही करना चाहिए। इस लघुकथा  का भविष्यनिधि से श्रेष्ठ शीर्षक हो ही नहीं सकता। इस लघुकथा  में वह बात पूरी लघुकथा  में सम्प्रेषित नहीं हो पातीउसे यह शीर्षक न केवल सम्प्रेषित है, अपितु लघुकथा  को श्रेष्ठता भी प्रदान करता है। यह शीर्षक भी लघुकथा  की आत्मा को स्पर्श करता है और उसकी आत्मा की अभिव्यक्ति को सहज ही सम्प्रेषित कर जाता है। इस क्रम में कृष्णानन्द कृष्ण की लघुकथा  संस्कारका भी अवलोकन किया जा सकता है। पति के अत्याचारों के कारण पत्नी को अपने पुत्र के साथ घर छोड़ना पड़ता है। एक लम्बे अन्तराल पर पति पत्नी से मिलने आता है ताकि पुन: साथसाथ रह सकें। बेटा विरोध करता है ;किन्तु माँ कहती है, ‘नहीं अनिल, नहीं। तुम्हें बीच में बोलने की आवश्यकता नहीं है। ये पहले भी तुम्हारे पापा थे, आज भी हैं। चलो पैर छूकर प्रणाम करो।’’ नायिका का यह सम्वाद भारतीय संस्कार को प्रत्यक्ष करता है। यही इस शीर्षक की सार्थकता है। कोई अन्य शीर्षक सटीक नहीं हो सकता। इसमें भी सम्प्रेषण का कार्य शीर्षक ही करता है कि वस्तुत: लेखक क्या कहना चाहता है।....  क्या संदेश देना चाहता है। इस लघुकथा  के औचित्य को भी यह शीर्षक ही स्पष्ट करता है।
इंदिरा खुराना की लघुकथा  कुण्ठाभी इस मायने में महत्त्वपूर्ण है। इस रचना में धृतराष्ट्र को प्रतीक बनाकर एक अंधे व्यक्ति के मनोविज्ञान को दर्शाया गया है। उसे लगता है कि मेरे अतिरिक्त सभी उसकी पत्नी के रूपसौन्दर्य का रसपान करते हैं। वह कहता है–‘‘जब तुम्हारी दृष्टि किसी अन्य वीर, बलिष्ठ, सुन्दरतेजस्वी युवक पर पड़ेगी तो उस समय मैं तुम्हें कितना दयनीय, असहाय, नगण्य प्रतीत होऊँगा।’’ धृतराष्ट्र का यह संवाद ही इस लघुकथा  के प्राण है। कुण्ठा से बेहतर शायद इसका अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता। इसी क्रम में नरेन्द्र प्रसाद नवीनकी लघुकथा  साम्राज्यवाद को रखा जा सकता है।
कुछ योरोपीय एवं अमरीकी लेखक वाक्यों या वाक्यांशों में अपनी रचना का शीर्षक रखते हैं। हिन्दी में उपन्यास एवं कहानी में इस प्रकार के शीर्षकों की भरमार दिखाई पड़ती है। किन्तु लघुकथा  में ऐसा कम ही देखने में आता है। डॉ0 कमल चोपड़ा की लघुकथा  खेलने के दिन’, ‘मुन्ने ने पूछाऔर जो बाकी बचा हैको सहज ही देखापरखा जा सकता है। जो बाकी बचा हैमें एक प्रवासी मज़दूर का बेटा गाँव में मर जाता है और वह गाँव जा नहीं पाता। वह सोचता है उसके जाने का दुख तो उसे है, मगर जाने वाला तो चला गया। अब मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा। खर्चा ऊपर से होगा। दो ढाई महीने के बाद फसलों की कटाई के अवसर पर जाएगा तो कह देगा कि चिट्ठी नहीं मिलीअब बाकी जो दो बच्चे हैं, उनके लिए तो कुछकुछ जमाजोड़ कर लूँ यह शीर्षक भी ठीक हैकिन्तु इस रचना का दूसरा शीर्षक भी हो सकता था। मगर यह शीर्षक एक अतिरिक्त आकर्षण पैदा करता है। मुन्ने ने पूछाये शीर्षक भी महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में इस लघुकथा  की कतिपय पंक्तियाँ द्रष्टव्य होंगीमुन्ने की धोईसफाई करने के बाद वह उसे निक्कर पहनाने लगी तो मुन्ने ने कहामम्मी आप मेरी धोई तो बड़े प्यार से करती हैं और दादी जी की सफाई करते वक्त बड़बड़बड़बड़ करती हैं–‘खेलने के दिनभी बहुत मार्मिक लघुकथा  है। इसमें एक रईस अपने घर के फालतू खिलौने को गरीबों की बस्ती में मुफ्त बाँटने जाता है, तो एक बच्चा कहता है–‘‘बाबू जी! खिलौने लेकर क्या करेंगे? मैं फैक्ट्री में काम करता हूँ, वहीं पर रहता हूँ। सुबह मुँह अँधेरे से देर रात तक काम करता हूँ, किस वक़्त खेलूँगा? आप ये खिलौने किसी बच्चे को दे देना...। यह शीर्षक इस लघुकथा  हेतु बहुत ही सटीक है। पूरी लघुकथा  जो बात नहीं कह पातीयह शीर्षक वह सब कुछ कह जाता है, जो कथाकार कहना चाहता है।
कुछ शीर्षक व्यंग्यात्मक होते हैं। प्रत्यक्षत: ऐसी लघुकथा एँ नकारात्मक संदेश देती प्रतीत होती है, किन्तु वस्तुत: उनमें से ध्पनित होता व्यंग्यजो उसमें से सकारात्मक संदेश सम्प्रेषित करता है। इस प्रकार की व्यंग्यापरक लघुकथाएँ आठवें दशक में थोक के भाव में लिखी गईंप्रकाशित भी हुई। उनमें भी कुछ श्रेष्ठ लघुकथाएँ सामने आईं थीं और आज भी ऐसी व्यंग्यपरक लघुकथाएँ कम ही सही, मगर लिखी जाती हैं। ऐसी लघुकथाओं में डॉ. परमेश्वर गोयल की युगधर्मको देखा जा सकता है। एक ग्रामीण बैंक के बाबू से कहता है–‘‘बैल हेतु कर्ज़ के लिए कई महीने हुए दरखास्त दिए। बाद वालों को कर्ज मिल भी गया, पर मुझे अब तक नहीं मिला।’’ इस पर काबू कहता है–‘‘रामभरोसे! दुनिया में जीना है, तो दुनियादारी सीखो केवल हाथ जो़ड़ने से, देवता भी खुश नहीं होते...प्रसाद भी चढ़ाना पड़ता है, समझे?’’
इस क्रम में रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा  संस्कारको भी देख जा सकता है। इसमे कुत्ते एवं साहब के बेटे में विवाद होता है। कुत्ता  साहब के बेटे को व्यंग्यपरक बाणों से छलनी करता है। उसपर साहब का बेटा बिगड़ उठता है और कुत्ता  हँसते हुए कहता है, ‘‘अपनेअपने संस्कार की बात है। मेरी देखभाल साहब और मेमसाहब दोनों करते हैं। तुम्हारी देखभाल घर के नौकरचाकर करते हैं। उन्हीं के साथ तुम बोलते बतियाते हो। उनकी संगति का प्रभाव तुम्हारे ऊपर जरूर पड़ेगा। जैसी संगति में रहोगे, वैसे संस्कार बनेंगे।
साहब के बेटे का मुँह लटक गया। कुत्ता  इस स्थिति को देखकर अफसर की तरह ठठाकर हँस पड़ा।
जब कभी व्यंग्य स्वाभाविक रूप से लघुकथा  में आता है, तो लघुकथा  को श्रेष्ठता प्रदानकर जाता है। यह लघुकथा  भी इस कथन का सटीक उदाहरण है। लघुकथा  में शीर्षक के महत्त्व  एवं उसकी सार्थकता को सिद्ध करते हुए कुछ उदहारण सटीक होंगे। इस संदर्भ में सत्यनारायण नाटे की एक लघुकथा  अपने देशका अवालोकन किया जा सकता है। एक व्यक्ति भिखारी की पूरी देह पर उभरे घावों को देखकर पूछता है कि तुम इन घावों का इलाज क्यों नहीं करवाते हो? भिखारी उत्तर में कहता है कि ‘‘घाव एकाध हो, तो इलाज भी करवाऊँ, मगर जहाँ पूरी देह घावों से भरी होउसका क्या किया जा सकता है?’’
इस क्रम में डॉ. सतीशराज पुष्करणा  की लघुकथा  बोफोर्स काण्डको भी अवलोकित किया जा सकता है। इस संदर्भ में निशान्तर का यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है–‘‘ लघुकथा  का शीर्षक उसके शिल्प के अन्तर्गत आता है, यह बात डॉ.पुष्करणा की लघुकथओं से सिद्ध होती है। कई बार तो इनकी लघुकथा ओं का शीर्षक एक स्वतंत्र एवं केन्द्रीय प्रतीक बनकर अपनी महत्ता  को स्थापित करता है। यह शीर्षक लघुकथा  का ऐसा अभिन्न अंग बन जाता है, जैसे कि वह सम्प्रेषण की कुंजी हो। डॉ. पुष्करणा की ऐसी लघुकथाओं में प्रमुख हैं बोफोर्स काण्डऔर सत्ता  परिवर्तन। ये दोनों लघुकथा एँ ऐसी हैं कि यदि इनके शीर्षकों को न पढ़ा जाए अथवा इन पर ध्यान न दिया जाए तो उनका कथन स्पष्ट नहीं होता, अन्यथा उसमें वह धार या चमक महसूस नहीं होती और लघुकथा  के शिल्प का एक आवश्यक अंग बनकर उभरा है। डॉ. पुष्करणा की ही एक लघुकथा  अपाहिजभी अवलोकन की आकांक्षा रखती है। लघुकथा  इस प्रकार है
पश्चिमी रंग में रंगते जा रहे एक पुत्र ने किसी तरह साहस जुटाकर अपने भारतीय रंग में रंगे पिता से कहा, ‘‘पापा! मैं शादी करना चाहता हूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मुझे प्यार हो गया है।’’
‘‘बेटे! पहले अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, फिर जो जी में आए करना।’’
‘‘पापा! अगर अपने पैरों पर खड़ा नहीं भी हो सका हूँ, तो क्या हुआ....वह तो अपने पैरों पर खड़ी है।’’
इस लघुकथा  को पढ़कर देखें और स्वयं सोचें, इसका अन्य भी सटीक शीर्षक हो सकता है? शायद नहीं हो सकता। इस शीर्षक के बिना इस लघुकथा  का न तो कोई मतलब है, और न ही कोई औचित्य।
तात्पर्य यह है कि शीर्षक का जितना महत्त्व  लघुकथा  में है, उतना अन्य किसी विधा में नहीं है। लघुकथा  में शीर्षक शिल्प का एक महत्त्वपूर्ण अंग है यानी लघुकथा  का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व  है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता।
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2 comments:

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