Saturday, November 13, 2010

4- लघुकथाएँ

सतीशराज पुष्करणा

पुरुष
बस गंतव्य की ओर अपनी गति से बढ़ी जा रही है और मार्कण्डेय जी भी उस बस के एक यात्री है। वह सबसे आगे दाहिनी खिड़की की ओर बैठे हैं। वह खिड़की से बाहर पीछे छूटते जा रहे दृश्यों का अवलोकन करते जा रहे हैं और अपने जीवन को प्रकृति से जोड़ते हुए सोच रहे हैं। कभी वह प्रफुल्लित लगने लगते हैं और कभी उदास। इतने में उनके पीछे की सीट से हल्के-हल्के दो नारी-स्वरों का वार्तालाप उनके कानों से टकराया, जो उन्हें सुखद लगा।
अब उनकी दृष्टि तो खिड़की से बाहर थी, किन्तु मन अपनी पिछली सीट पर। उनका चेहरा कुछ द्वन्द्व एवं कुछ तनाव में दिखने लगा। अपनी उम्र और प्रतिष्ठा को देखते हुए वह चाहकर भी अपने पीछे घूमकर देख नहीं पा रहे हैं और मन ऐसा है कि उन्हें पीछे मुड़कर देखने का बाध्य कर रहा है। किन्तु लोकाचार के हाथों विवश मार्कण्डेय जी पुन: खिड़की से बाहर पीछे की ओर भागते जा रहे दृश्यों को देखने लगते हैं। अब वह प्रकृति को अपने से नहीं, पिछली सीट पर बैठी नारियों से जोड़कर सोच रहे हैं। उनके मानस-पटल पर कभी युवतियों के चेहरे उभरते हैं, कभी अधेड़ और कभी उससे भी अधिक आयु एवं सुंदरता का अनुमान वह अवश्य लगा रहे हैं। फिर अनुमान ही हुआ करता है।
उन्हें झुँझालाहट हो रही है कि बस कहीं रुक क्यों नहीं रही है? बस रुके और वह ज्ञरा अपनी सीट से हटें और पीछे सहज रूप से देख सकें; अपराधबोध से भी बचा जाए। किन्तु बस चलती ही जा रही है।मौसम थोड़ा ठंडा होने लगा है। हवा के झोंके उन्हें अच्छे लग रहे हैं, आनन्द प्रदान कर रहे हैं। मन में कहीं हल्की-सी गुदगुदी भी हो रही है। चेहरा प्रफुल्लित-सा होने लगता है। उन्हें हरियाली दिखाई पड़ रही है।
बाहर हल्की बूँदाबाँदी आरम्भ हो जाने के बावजूद उन्हें इसका कोई एहसास नहीं है। वह पीछे बैठी नारियों के रूप एवं स्वरूप की कल्पना में खोए हैं। एक से एक सुन्दर चेहरे मानस-पटल पर बाहरी । दृश्यों की तरह आते और ओझल होते जा रहे हैं। तेज हवा के झोंके के साथ पानी के हल्के छींटे खिड़की के खुले कपाटों से उनके चेहरे को भिगो रहे हैं, मगर उन्हें उसका कोई विशेष एहसास नहीं हो पा रहा है। एकाएक पीछे से नारी-स्वर हल्के-से उनके कानों से टकराया, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!"
इस स्वर ने उन्हें चौंका दिया और उनके मुँह से निकला,"अच्छा बेटा!" और किसी स्वचालित मशीन की भाँति उनके हाथ खिड़की की ओर बढ़ जाते हैं और धीरे से खिड़की को बन्द कर देते हैं।
अब उनका मन शांत हो गया है और उनकी निगाहें सामने बैठे बस चला रहे ड्राइवर की पीठ से चिपक जाती हैं।


-0-
हाथी के दाँत

घर में आयोजित एक समारोह से जैसे ही फुर्सत मिली, वह और उसके मित्र भीड़ से कटकर घर के एक कोने में जा बैठे, और बातचीत का क्रम चल निकला। बातचीत का मुख्य विषय राजनीति ही रहा। एक ने कहा, "परिवर्तन आवश्यक था…नई सरकार से आशाएं बँधी हैं।"
"अरे क्या खाक परिवर्तन हुआ! पहली सरकार के निकाले हुए कुछ लोगों की सरकार है…यदि वह इन्हें नहीं निकालती तो ये कुर्सी-चिपकू कब वहाँ से हटनेवाले थे!" दूसरे ने तर्क जड़ा।
इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, उसने अपने नौकर को आवाज दी, "अरे ननकू, कहाँ मर गया!"
नौकर को आवाज देकर वह पुन: बातचीत में शामिल होते हुए बोला, "अरे यार! परिवर्तन तो तब समझो…जब सत्ता सर्वहारा के हाथ में आए। जब तक सरकार रईसजादों के हाथ में रहेगी, तब तक इस समाज और इस देशा का हित संभव नहीं है। भारत के अस्सी प्रतिशत लोग तो गांवों में बसते हैं।" अपनी बात समाप्त करते ही वह भुनभुनाया, "यह हरामजादा ननकू भी सुनता नहीं…आवाज्ञ दी थी…पर इस साले पर कोई असर हो…तब तो…!" उसने पुन: आवाज्ञ दी, "ननकू…तू सुनता क्यों नहीं रे?"
हाथ पोंछते हुए लपकते-लपकते ननकू आ गया और बोला, "जी मालिक ! खाना खा रहा था…इसी से कुछ देर हो गई।"
"अबे मालिक के बच्चे! तूझे खाने की पड़ी है… और मेरा गला मारे प्यास के सूखा जा रहा है।" इतना डाँटने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-मित्रों के मध्य नौकर को बुलवाया…वह तुरंत उपस्थित ही नहीं हुआ। उसे यह स्थिति अपमानजनक लगी-यह सोचकर उसका क्रोध एकाएक सातवें आसमान पर जा पहुंचा और उसका दाहिना हाथ पूरे वेग से घूमा और 'चटाक्' की ध्वनि के साथ ननकू के गाल पर जा चिपका।

-0-
सहानुभूति
कहीं से स्थानान्तरण होकर आए नए-नए अधिकारी एवं वहां की वर्कशाप के एक कर्मचारी रामू दादा के मध्य अधिकारी के कार्यालय में गर्मागर्म वार्तालाप हो रहा था।
अधिकारी किसी कार्य के समय पर पूरा न होने पर उसे ऊँचे स्वर में डाँट रहे थे-
"तुम निहायत ही आलसी और कामचोर हो।"
"देखिए सर! इस तरह गाली देने का आपको कोई हक नहीं है।"
"क्यों नहीं है? "
"आप भी सरकारी नौकर हैं, और मैं भी।"
"चोप्प! "
"दहाड़िए मत! आप ।ट्रांसफर से ज्यादा मेरा कुछ भी नहीं कर सकते।"
"और वही मैं होने नहीं दूँगा।"
"आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे लूँगा। किन्तु इस प्रकार आप मुझे डाँट नहीं सकते। वरना…"
"मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो….कर लेना। समझे? "
निरुत्तर हुआ-सा रामू इसके बाद चुपचाप सिर झुकाए कार्यालय से निकल आया।
बाहर खड़े साथियों ने सहज ही अनुमान लगाया कि आज घर जाते समय साहब की खैर नहीं। दादा इन्हें भी अपने हाथ जरूर दिखाएगा, ताकि फिर वे किसी को इस प्रकार अपमानित न कर सकें।
इतने में से उन्हीं में से कोई फूटा-"दादा! लगता है इसे भी सबक सिखलाना ही पड़ेगा।"
"नहीं रे! सबक तो आज उसने ही सिखा दिया है मुझे। वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।"
इतना कहकर वह अपने कार्यस्थल की ओर मुड़ गया।
-0-
वर्ग-भेद
वे तीनों आपस में न तो मित्र थीं, और न ही शत्रु थीं। तीनों रेखाएँ विषमबाहु त्रिभुज की थीं। माप में सभी भिन्न थीं। आधारभुजा सबसे बड़ी थी। अन्य भुजाओ में एक मध्यम तथा दूसरी छोटी थी। बड़ी भुजा अन्य दोनों भुजाओ को आधार दिए हुए थी और दोनों को अपने-अपने ढंग से तथा उनके स्तर को ध्यान में रखकर उपयोग करती थी। छोटी भुजा उसको अपेक्षाकृत अधिक प्रिय थी कि थोड़े-से लालच में वह उसे एक नौकरानी की तरह उपयोग कर लेती थी। छोटी भुजा के लिए यही गर्व की बात थी कि उसे बड़ी भुजा का सान्निध्य प्राप्त था।
मध्यम भुजा दोनों के मध्य थी। उसका संबंध भी दोनों से था, मगर अपना अस्तित्व एवं स्वाभिमान बरकरार रखकर। पढ़ी-लिखी होने के कारण मध्य भुजा की दृष्टि बहुत पैनी तथा सोच खुली एवं निखरी हुई थी। अत:,दोनों भुजाओ को कभी-कभी उससे भय भी लगता था और खतरे का अनुभव भी करती थीं। बड़ी और छोटी दोनों मिलकर मध्यम के विरूद्ध षडयंत्र भी रचातीं, किन्तु सफल नहीं हो पाती थीं। फिर भी बहुत ही चालाकी से बड़ी उसे उसकी हैसियत का एहसास करा देती और मध्यम को मोहरा बना लेती। एक-दो बार तो मध्यम मोहरा बनी, किन्तु तीसरी बार उसने स्पष्ट इन्कार तो नहीं किया, किन्तु धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने हेतु दोनों का साथ छोड़ने लगी, और छोड़ते-छोड़ते वह पूर्णत: स्वतंत्र हो गई। इस प्रकार विषमबाहु त्रिभुज बिखरकर स्वतंत्र रेखाओ में परिवर्तित हो गया।
छोटी भुजा अब उदास थी और अपने जीवन को रक्षा हेतु अपने अस्तित्व की तलाश करने लगी। बड़ी भुजा छोटी भुजा को देखकर किसी सामंत की तरह धीरे-धीरे कुटिल मुस्कान छोड़ रही थी।

-0-



No comments:

Post a Comment