-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सतीशराज पुष्करणा विभिन्न विधाओं में एक लम्बे अर्से से लिख रहे हैं ।लघुकथा लेखक के रूप में पुष्करणा जी ने राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है । समीक्षक के रूप में लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी आपने पर्याप्त कार्य किया है । विभिन्न प्रान्तों में समय-समय पर होने वाली गोष्ठियों और सम्मेलनों में अपने सुलझे हुए विचारों से लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों के आइसबर्ग को तोड़ा है ।सम्पादक के रूप में कई सौ लघुकथाकारों को एक मंच पर लाने का काम भी किया है ।
प्रसंगवश पुष्करणा जी की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह है ।इस संग्रह की बहुत सारी लघुकथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं । ये लघुकथाएँ नवोदित लेखकों के लिए प्रतिदर्श हैं। कथ्य की विश्वसनीयता एवं पैनापन, शिल्प की सहजता और प्रांजलता, पात्रों की जीवन्तता ;इन्हें और भी खरा बना देती है । लेखक ने सतही वर्णन से परहेज़ किया है । सूक्ष्म पर्यवेक्षण के द्वारा लेखक पात्रों की मनोभूमि पर उतरकर चित्रण को संश्लिष्ट एवं बोधगम्य बनाने में सफल रहा है । आधुनिक यांत्रिक सम्बन्धों की विडम्बना एवं मूल्य -विघटन ,, व्यक्तित्व के खोखलेपन, प्रशासन की जड़ता एवं नपुंसकता , सामाजिक दायित्वहीनता ,कालबोध के प्रति कच्छप-वृत्ति पर लेखक ने जगह-जगह प्रहार किया है । इस संग्रह की लघुकथाओं में कुल मिलाकर जीवन -दृष्टि का सकारात्मक पक्ष ही सामने आया है । ‘स्वाभिमानी’ लघुकथा को छोड़ा जा सकता है ।इसका अच्छा या बुरा प्रभाव पाठक के मन को टटोलने के लिए है । अधिकतम लघुकथाओं की गूँज आस्थावादी है । यह अनुगूँज उन लेखकों से पुष्करणा जी को अलग करती है ; जिन्हें यह संसार ‘कसाईखाने’ से अधिक कुछ दिखाई नहीं देता ।
इक्कीसवीं सदी, सहानुभूति ,एक और एक ग्यारह ,ऊँचाई लघुकथाएँ अपनी साहित्यिक ज़िम्मेदारी निभाती दिखलाई देती हैं। ड्राइंगरूम स्मृति , सबक ,बात ज़रूरत -ज़रूरत की-ये लघुकथाएँ हृदय की सूक्ष्म भावनाओं को बड़ी तीव्रता से महसूस कराती है। पत्नी की इच्छा ,क्षितिज सम्बन्धों की स्वार्थपरता को बेनक़ाब करती है ।‘ पश्चाताप’ लघुकथा उन सह्ज सम्बन्धों को समर्पित है , जो केवल विश्वास पर चलते हैं और यही विश्वास आत्मा का सौन्दर्य एवं शक्ति है ।‘इबादत’ का सन्देश है कि मानवीय संवेदना ही सबसे ऊपर होती है ।
कुछ् लघुकथाएँ सड़ी-गली व्यवस्था की शल्य-क्रिया करती नज़र आती हैं ,जिनमें फ़र्ज़,नौकर ,परिभाषा,बेबसी, फ़ितरत लघुकथाएँ प्रशासनिक दोगलेपन एवं जनसाधारण की पंगुता को के दर्द को रेखांकित करती हैं । ‘सीढ़ी’ लघुकथा अवसरवादिता एवं आज के शिक्षकों की मूल्यहीनता को ,’सही न्याय’ प्राचार्य के उत्तरदायित्व -निर्वाह एवं व्यवहार -सजगता को उजागर करती है ।व्यापारी, अन्याय , बिखरी हुई मित्रता,पुरस्कार लघुकथाएँ प्रभावी एवं उल्लेखनीय है। इन लघुकथाओं में सफ़ेदपोशों की हृदयहीनता , पाशविक क्रूरता एवं जनसामान्य की मर्मभेदी विवशता सहज शैली में प्रस्तुत किया गया है ।‘सच्चा इतिहास’जनसाधारण की वेदना को रूपायित करती है। ‘दिखावा’, ’हीन भावना’ नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य करती है। ‘जाग्रति’ के बढ़ते कदम’ सशक्त लघुकथा है ;जो शोषित के उफनते विद्रोह को इंगित करती है ।
सभी लघुकथाओं को विषयानुकूल दस खण्डों में विभाजित किया गया है ।हत्या , बलात्कार की लघुकथाओं से लेखक ने अपनी पुस्तक को बचाया है । अखबारी सूचनाओं ,उद्देश्यहीन प्रसंगों को लेखक ने ‘प्रसंगवश’ में अपनी लघुकथाओं का विषय नहीं बनाया है । अपने परिवेश के प्रति लेखकीय ईमानदारी विभिन्न रचनाओं में साफ झलकती है ।
प्रसंगवश: सतीशराज पुष्करणा , अयन प्रकशन ,1/20 महरौली नई दिल्ली-110030
मूल्य :25 रुपये , पृष्ठ : 120 संस्करण: 1987
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