Saturday, November 13, 2010

हिन्दी–लघुकथा के उल्लेखनीय हस्ताक्षर : रमेश बतरा

डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
हिन्दी–लघुकथा के पुनरुत्थान काल के आठवें दशक में लघुकथा को जिन कुछ लोगों ने सार्थक दिशा दी है, इसे हाशिए से उठाकर मुख्य धारा से जोड़ा, उनमें रमेश बतरा का नाम अग्रगण्य है। रमेश बतरा उन दिनों कमलेश्वर के साथ जुड़कर ‘‘सारिका’’ को अपना संपादन सहयोग प्रदान कर रहे थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ‘‘सारिका’’ कथा–प्रधान पत्रिका के रूप में साहित्यकारों से लेकर जन–सामान्य तक, एक जैसी लोकप्रिय पत्रिका थी। ‘‘सारिका’’ का प्रत्येक अंक किसी–न–किसी कारण कारण से चर्चा का विषय बन जाता था। कभी वह कारण कोई कहानी या कभी कोई विशेषांक हो जाता था। ऐसे ही समय में 1973 में रमेश बतरा की एक लघुकथा ‘‘जरूरत’’ प्रकाश में आई थी। यह लघुकथा स्वप्न मनोविज्ञान के उस सिद्धांत का प्रतिपादन करती थी कि दिन में व्यक्ति की जो इच्छाएँ–अधूरी रह जाती हैं,वे उसके अवचेतन मस्तिष्क में चली जाती हैं और पुन: वह स्वप्न में पूरी होती हैं। इस लघुकथा ने लघुकथा–आंदोलन को गति दी और क्रमश: ‘‘सारिका’’ में निर्बाध रूप से लघुकथा स्थान प्राप्त करने लगी और कुछ ही समय में उसने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि ‘‘सारिका’’ के कुछ–कुछ समय के अन्तराल पर तीन–चार लघुकथांक प्रकाशित हुए। निस्संदेह इसका श्रेय जहाँ कमलेश्वर को जाता है, वहीं इसका श्रेय रमेश बतरा को भी जाता है।
रमेश बतरा–चाहे ‘‘सारिका’’–से सम्बद्ध रहे हों या ‘‘नवभारत टाइम्स’’ और ‘‘संडेमेल’’–रमेश ने लघुकथा को सदैव बढ़ावा दिया। रमेश ने स्वयं बहुत अधिक लघुकथाएँ नहीं लिखीं–उन्होंने कुल जमा तीस–बत्तीस लघुकथाएँ ही लिखीं। किन्तु जितनी भी लिखीं, वे सभी लघुकथा–जगत की धरोहर बन गई हैं। उनकी एक लघुकथा ‘‘स्वाद’’ 1983 में ‘‘तारिका’’ (अब शुभ तारिका) में प्रकाशित हुई थी। यह लघुकथा भी काफी चर्चित हुई थी। इस लघुकथा में ‘‘भूख’’ क्या होती है, यह बताया गया था। इस लघुकथा में दो भाई हीरा–मोती हैं। परदेस में दोनों रिक्शा खींचते हैं। घर से एक साथ निकलते हैं । दिन भर कहीं भी रहे, मगर रात में दस बजे एक ही ढाबे पर मिलते हैं। एक दिन दोनों मिले, तो हीरा ने रिक्शा से उतरते ही कहा, ‘‘चल मोती! आज देसी घी वाले होटल में खाना खाएँगे–बढि़या दिहाड़ी हो गई अपनी। ‘‘मोती इन्कार कर देता है और बताता है, ‘‘सुबह एक व्यापारी अपना टिफिन रिक्शा में भूल गया था। पहले तो मैं घंटा भर वहाँ खड़ा रहा कि शायद वह वापस आ जाए। पर कोई नहीं आया, तो मैंने टिफिन खोलकर देखा...घर का खाना था। मुझसे रहा नहीं गया। सारा चट कर गया। क्या स्वाद था भैया...तबसे कुछ खाने को जी ही नहीं चाह रहा है...।’’
हीरा पल भर तो मोती की खुशी में आत्म विभोर–सा हो गया। लेकिन फिर सहसा बड़े स्वर में उसे डाँटते हुए बोला, ‘‘पर तूने आधा मेरे वास्ते क्यों नहीं रखा, बेवकूफ।’’
बात केवल भूख तक ही सीमित नहीं है। बात अपनी जमीन से जुड़ी संवेदना की भी है कि घर–घर ही होता है। यही कारण है कि रमेश के पाठक उसकी लघुकथाओं में स्वयं को तलाश ले्ते हैं। अपने जीवन की घटनाओं में इन लघुकथाओं में स्वयं को कहीं–न–कहीं अवश्य ही खोज लेते हैं। रमेश ने लघुकथाएँ लिखी या कहानियाँ, सदैव भेड़–चाल से अलग हटकर लिखीं। उसकी लघुकथाओं में कभी भी अस्वाभाविक कल्पना द्वारा पात्र सृजित नहीं किए गए–यही कारण है उसकी लघुकथाओं के पात्र पाठकों की सहानुभूति सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं रमेश की लघुकथाओं को पढ़ने से ऐसा लगता है कि वह अपने पात्रों से स्वयं भी काफी सहानुभूति रखते हैं। वह उनके जख्मों को सहलाते हैं–उन पर मरहम लगाते हुए प्रतीत होते हैं। तात्पर्य यह है कि रमेश अपनी लघुकथाओं के पात्रों से काफी गहराई तक न मात्र जुड़ जाता था, बल्कि जुड़े ही रहते थे। इसका स्पष्ट कारण है कि वह विशुद्ध मानव था और अति संवेदनशील था। संवेदना की सीमा तक संवेदनशील कथाकार ही अपने पात्रों से इस गहराई तक जाकर जुड़ सकता है। इस संदर्भ में उसकी ‘एक लघुकथा’ ‘‘बीच बाजार’’ है। इस लघुकथा की विद्या एवं ‘‘वह औरत’’ दोनों पात्रों को लेखक की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त हुई है।
रमेश ने कभी भी अपनी किसी भी लघुकथा को न तो बीच–खींच कर लम्बा किया और न ही काँट–छाँटकर छोटा कथानक के अनुसार सहल ही रचना ने जो आकार ग्रहण किया उसके साथ लेखकीय जबरदस्ती नहीं की। इस संदर्भ में 1978 में लिखी लघुकथा ‘‘कहूँ कहानी’’ देखी जा सकती है। यह लघुकथा मात्र सवा दो पंक्तियों की है। लघुकथा इस प्रकार है–
ए रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात में घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही–‘‘एक लाजा है, वो बोत गलीब है।’’
और लघुकथा समाप्त। इस रचना में जितना कहा गया है, उससे कहीं अधिक अनकहा है, जो कहीं से कहीं अधिक सम्प्रेरित हो जाता है।
रमेश ने अपने पात्रों द्वारा न तो परिस्कृत भाषा में संवाद कहलवाए और न ही पात्रों के अनुकूल भाषा के चक्कर में ऐसी किसी क्षेत्रीय बोली का उपयोग किया, जो कि उससे अलग क्षेत्र के पाठक की समझ में ही न आए। रमेश ने यथार्थ के नाम पर या पात्र के चरित्रानुकूल भाषा का उपयोग नहीं किया, जिसे सभ्य समाज में वर्जित समझा जाता है।
रमेश की लघुकथाओं में जिन्दगी की तलाश, जिन्दगी की तड़प, जिन्दगी को बचा लेने की शक्ति को तीव्रतर करने की बात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कही गई है। उसका मानना था कि लेखक की ‘संवेदनशीलता’ और ‘कला’ का समन्वय इस अनुपात में होना चाहिए कि रचना पाठक के हृदय को सहज ही स्पर्श कर जाए। ‘‘दुआ’’ लघुकथा इस कथन का सुन्दर उदाहरण है। शहर में दंगा हो जाता है। नायक कार्यालय से थ्रीव्हीलर पर बैठकर जल्दी ही घर पहुँचना चाहता है। अपने नियत स्थान पर पहुँचकर थ्री व्हीलर रुकता है। ड्राइवर मीटर देखकर कहता है, ‘‘पाँच रुपए सत्तर पैसे।’’
वह गुस्साता हुआ थ्री व्हीलर से उतरता है और जेब में हाथ डाले ड्राइवर की तरफ से आँख मूँदकर भागने लगता है। ड्राइवर उसका पीछा करता है किन्तु असफल रहता है और स्वयं में ही बड़बड़ाने लगता है, ‘‘साला हिन्दू है तो मुसलमानों के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिन्दुओं में जा फँसे।’’ ‘‘इसका शीर्षक’’ दुआ स्वयं में तीर–सा चुभता हुआ व्यंग्य है। इस कथाकार की लघुकथाएँ जहर भरी जिन्दगी के मध्य जीते आदमी की कथा बयान करती हैं। रमेश की लघुकथाएँ आम आदमी को तत्कालीन समाज एवं व्यवस्था में सम्पूर्ण मानवीय दृष्टिकोण के वातावरण में निरंतर आगे बढ़ते हुए संघर्ष करने का रास्ता दिखाती है। इनके पात्रों का जीवन अपनी पूरी जटिलता तथा संघर्ष–चेतना के साथ उजागर होता है। रमेश अपनी लघुकथाओं के माध्यम से आदमी के दु:ख–दर्द हेतु उसके शोषण व अपमान को नि:शेष करने हेतु पात्रों के माध्यम से वस्तुत: वह संघर्ष करते हैं। इसकी सुन्दर बानगी ‘खोया हुआ आदमी’ है। जहाँ आदमी इतनी उलझनों में उलझ गया है कि वह अपना पहचान ही भूल गया है कि वह रोज मरता है और रोज जीता है। जीवन जीने हेतु उसे क्या–क्या ढोंग करने पड़ते हैं। रोज कितने–कितने चेहरे बदलने पड़ते हैं। यह स्थिति नौकरी में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उसके सामने दूसरों की बुराई और बॉस की बड़ाई और बाहर आते ही साथियों के पूछने पर–‘‘क्यों भई, क्या रहा?’’
‘‘कुछ नहीं!’’ बीच ब्रांच में खड़े बाबू राम सहाय ने बॉस के कमरे की ओर मुहँ उठाकर कहीं, ‘‘हरामी!सठिया गया है...मरेगा।’’
वस्तुत: ऐसे ही दोहरे चरित्र के राम सहायों के कारण हमारे देश की यह स्थिति हुई है। यह रचना एक आफिस का प्रतीक बन कर पूरे देश की स्थिति का बयान करती है।
रमेश की लघुकथा में पात्रों एवं घटनाओं का संयोजन देखते ही बनता है। यही कारण है कि इसकी लघुकथाएँ पाठक पर अपना प्रभाव सहज ही जमा लेती हैं। और शायद यही एक प्रमुख कारण है कि इसकी लघुकथाएँ वर्षों में रहीं और कम लघुकथाएँ लिखकर भी वह लघुकथा इतिहास के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में स्थापित है। रमेश की एक लघुकथा है ‘लड़ाई’ यह लघुकथा रमेश की ही नहीं वरन् लघुकथा जगत् की एक उल्लेखनीय रचना है।
ससुर के नाम से आए तार को बहू पढ़ लेती है कि उसका पति सीमा पर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शहीद हो गया है। ससुर जिज्ञासावश पूछता है कि तार में क्या लिखा है। वह कहती है, ‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’ सास पूछती है, ‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है, लड़ाई जल्दी ही खत्म हो जाएगी।
‘‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मजाक किया।
कुछ नहीं! ‘‘कहते हुए–मानो वह लजाई हुई–सी अपने कमरे की तरफ भाग जाती है और वह कमरे को ऐसे बंद करती है, मानो उसका पति कमरे में हो। वह सुहागरात वाला जोड़ा निकालकर पूरा शृंगार करती है। अलमारी में से बंदूक निकालती है। उसे साफ करती है। और बंदूक की बगल में लिटाकर चूम–चूमकर सो जाती है।
इस लघुकथा में अंधविश्वासों और रूढ़ियों की जकड़न को तोड़कर मानव को मुक्त करने का सार्थक एवं सराहनीय प्रयास है। वह अपने पात्रों को अक्सर लोमहर्षक व कठिन परिस्थितियों से इतनी सहजता से गुजार देते है। कि अस्वाभाविक होते हुए भी सब कुछ सहज–स्वाभाविक लगता है। इसकी लघुकथाओं की एक अन्य विशेषता यह है कि उनका अन्त इतना स्वाभाविक एवं सटीक होता है। कि पाठक पर रचना का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में इसकी किसी भी लघुकथा को प्रस्तुत किया जा सकता है। परन्तु ‘नागरिक’ से अच्छा उदाहरण और क्या होगा। जहाँ पुलिस–तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल बहुत ही करीने से खोली गई है। पुलिस, जिसे चाकू लगे हैं उसी को कातिल समझ कर बंद करना चाहती है। देखे इस लघुकथा का अंत –
‘‘ऐ...ऐ...क्या नाम...क्या नंबर है तुम्हारा?’’ कुर्सी पर बैठी चकमक वर्दी फुर्ती से उठी और चिल्लाने लगी, ‘‘थाम लो साले को...बच्चा कहीं कोई खून–खराबा करके आया लगता है।’’
रमेश ने अपनी लघुकथाओं का अन्त कभी चौंकाकर नहीं किया। उसका मानना था कि चौंकाने वाले अंत से एक क्षण को तो आनंद की अनुभूति होती है, किन्तु ऐसी रचनाएँ कभी भी स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। अत: रचना का अंत भी स्वाभाविक ही होना चाहिए कि पाठक रचना को बार–बार पढ़े और बार–बार उसके विषय में सोचे, और उसपर विचार करे।
रमेश ने अपनी लघुकथाओं में अपने समय के समाज का सच लिखा और उसे क्लासिक ढंग से प्रस्तुत किया। उसकी रचनाओं से गुजरने पर एक अन्य बात साफ होकर सामने आती है कि उसका उद्देश्य वर्तमान समाज में व्याप्त प्रतिक्रियावादी शक्तियों की उखाड़ फेंकना है। आग के समाज में महामारी की तरह से फैल रही जाति–प्रथा,धार्मिक उन्माद, आपसी वैमनस्य,नारी उत्पीड़न,इत्यादि विसंगतियों को उसकी लघुकथाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। इसका भी कारण है कि यह सब कैसे संभव हो पाता है–उसकी लघुकथाओं के पात्र बहुत ही जीवन्तता से न मात्र चित्रित हुए हैं, बल्कि पाठकों के समक्ष सजीव होकर उपस्थिति हो जाते हैं और उनसे सीधा साक्षात्कार करते हैं।
आज हमारे देश में बार–बार जनता पर चुनाव लादकर प्रजातंत्र का मजाक उड़ाया जा रहा है। रमेश जैसा संवेदनशील लेखक इन स्थितियों से बेखबर कैसे रह सकता है? वह अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान प्रतातांत्रिक व्यवस्था की कुव्यवस्था पर लगातार प्रहार करते है और पाठक के दिल में हलचल पैदा करके उसे सोचने–कुछ करने हेतु उत्प्रेरित करती है। इसके लिए उसकी लघुकथा ‘अनुभवी’’ का अध्ययन किया जा सकता है।
रमेश का मानना है कि किसी भी अभियान को अतिशील बनाएँ रखने के साहित्यकार की एक विशिष्ट भूमिका रहती है। वह समक्ष सच के साथ–साथ तमाम सामाजिक एवं राजनैतिक स्थितियों को बहुत ही सम्प्रेषणीय ढंग से पाठकों के समक्ष रखता है और उन्हें प्रतिकूलता के विरोध में सीधी लड़ाई हेतु तैयार करता है। हमारी स्वतंत्रता–संग्राम एवं जे.पी.आंदोलन इस सत्यता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
हाँ! रमेश की लघुकथाओं में कहीं–कहीं बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता भी पड़ती है। ‘‘खोया हुआ आदमी’’ इसका सुन्दर उदाहरण है। यह सच भी है कि लेखक अपने लेखन का अधिकांश प्रतिशत पाठकों के लिए ही लिखता है, मगर कुछ प्रतिशत वह अपने सुख के लिए भी लिखता है। कारण वह स्वयं भी लेखक होने के साथ–साथ एक पाठक भी तो होता है। ऐसी बौद्धिक और संवेदनशील लेखकों की प्रत्येक भाषा के साहित्य को आवश्यकता होती है। ऐसे में रमेश का 16 मार्च, 1999 ई0 को मात्र छियालिस वर्ष ,छह महीने और अट्ठारह दिन की अल्पायु में अपने लेखकीय दायित्व को अधूरा छोड़कर दिवंगत हो जाना, मात्र लघुकथा की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कथा–जगत् की ऐसी अपूर्णीय क्षति है, जिसे केवल रमेश बतरा ही पूरा कर सकते थे। ऐसे जुझारु रचनाकार की कथा–साधना का बार–बार अभिन्नदन और उसी आत्मा को शत्–शत् बार नमन्!
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