Tuesday, December 21, 2010

37 हाइकु:

 डॉ सतीश राज पुष्करणा
1
हमारा गाँव
न जहाँ एक नदी
न कोई नाव ।
2
कैसा वक़्त है !
कुत्ता खा रहा रोटी
आदमी बोटी
3
रौशन हुए
 मकाँ को जब देखा
लगा-घर है ।
4
बूढ़ी दादी
आज भी पहचान
पूरे गाँव की ।
5
नींद आएगी
आँधियों को तकिया
बना लीजिए ।
6-
राह में काँटे
हों कि फूल ,हमें तो
चलना है ।
7
नींद आएगी
आँधियों को तक़िया
बना लीजिए।
8
हरहराती
नदी है या तुम्हारी
ये मुक्त  हँसी ।
9
दु:ख होता है
आता है जब वह
बुढ़ापे जैसा
10
आई है रात
चलो! मिलके करें
दिन की बात ।
11
हँसो ऐ दोस्त !
रोने से रात छोटी
नहीं होती है ।
12
हल्की समझ
जो खोली चिट्ठी,दिल
भारी हो गया ।
13
बचपन को
छोड़,सीधा जवान
हो रहे बच्चे ।
14
धोखा न देते
पेड़ कभी, आज के
बेटों के जैसा।

-‘बूँद-बूँद रोशनी’-(506 हाइकु )संग्रह से

15
खुशी न दी हो
कुछ दु:ख ज़रूर
बाँटे हमने ।
16
प्रेम देकर
तेरे पास बचा क्या ?
जो मैं माँग लूँ !
17
तेरी यादों के
सूर्य से हर रात
कट जाएगी ।
18
ख़त्म हुए हैं
बचे-खुचे रिश्ते भी
सच जो बोला ।
19
पानी काँपा
कोई प्यासा खड़ा है
नदी-तट पे ।
20
कटा जीवन
मिले कभी अपना
तलाश रही ।
21
मीठा पानी पी
समुद्र न बदला
खारा ही रहा ।
22
तेरी शक्ल में
चाँद उतर आया
मेरे दिल में ।
23
प्रकृति जैसे
दिल नहीं मानता
कोई भी सीमा ।
24
अनेक यादें
देके गया किसी के
पल का साथ ।
25
न हटे धूल
मन से , कैसे खिलें
मन के फूल ।
26
ज़िद न करें
हाथ न आने वाले
भागते पल ।
27
टकराते न
 जहाँ कभी बर्तन
घर न होता ।
28
होंठ सिले हैं
तो क्या !आँखें खुली हैं
बोल ही देंगी ।
29
बाती -सी जली
हर दिन-रात को
हमारी माँ थी ।
30
हँसते देख
ऐसा लगा कि वह
बड़ा दुखी है ।
31
ऐसा होता है
आँखें भीगती मेरी
दु:ख किसी का ।
32
हर रिश्ते में
दु:ख ही सहती हैं
प्राय: बेटियाँ ।
33
लाड़ से पली
दहेज की आग में
बेटियाँ जली ।
34
मेरे आँगन
चिड़ियाँ कई आतीं
खुशियाँ लातीं ।
35
कच्चा घड़ा भी
हो गया नदी पार
सच्चा है प्यार ।
36
तट न मिला
डूब गए जो हम
उन आँखों में ।
37
मिटी थकान
देखकर बच्चे की
शुभ्र मुस्कान ।
-0-
[खोल दो खिड़कियाँ से ]

Saturday, December 18, 2010

23 वाँ अखिल भारतीय लघुकथा- सम्मेलन-12 दिसम्बर 2010-चित्र-वीथी

श्री चन्द्र  भूषण सिंह चन्द्र का सम्मान
श्री शराफ़त अली खान का सम्मान
श्री चन्द्र भूषण सिंह , श्रीमती उर्मिला कौल , डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र
श्री सुकेश साहनी 

आरोह -अवरोह के विशेषांक का लोकार्पण
श्री  काम्बोज को सम्मानित करते हुए डॉ  पुष्करणा व श्री नचिकेता

डॉ उर्मिला अग्रवाल के ताँका-संग्रह का विमोचन-1
श्री राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु द्वारा सम्पादित हाइकु-संग्रह का विमोचन

डॉ उर्मिला अग्रवाल के ताँका-संग्रह का विमोचन-2

Saturday, November 13, 2010

उन्नीसवाँ अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन

पटना । भारत ।। लघुकथा कथा विधा की अत्यंत ही संश्लिष्ट और प्रभावशाली विधा है जो प्रभाव में बिच्छू के डंक की तरह अपना प्रभाव पाठक के मन पर छोड़ती है। यह स्वभाव से क्षिप्र, पैनी और दूर तक कार्य करती है। दिनांक-१०/१२/ २००६ (रविवार) को ‘बिहार राज्य माध्यमिक शिक्षक संघ’ के सभागार में अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के तत्वावधान में आयोजित १९ वें अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन का उद्-घाटन करते हुए कही। सम्मेलन की अध्यक्षता कथाकार कृष्णानन्द कृष्ण ने की। उन्होंने कहा कि “वर्तमान समय में लघुकथा अब किसी की मोताज नहीं रह गयी है। किंतु शिल्प, प्रस्तुतीकरण और अंतर्वस्तु के स्तर पर वैश्विक बनाने के लिए रचनाकारों को अपनी दृष्टि का विस्तार करना होगा।"
सत्र के प्रारंभ में बरेली से आये सुप्रतिष्ठ लघुकथाकार सुकेश साहनी द्वारा वीणा-वादिनी के चित्र पर माल्यार्पण के पश्चात् श्री राजकुमार प्रेमी ने वाणी-वन्दना प्रस्तुत की। उसके बाद मंच के संयोजक प्रख्यात कथाकार डॉ० सतीशराज पुष्करणा ने देश के विभिन्न भागों से आये सृजनकर्मियों का स्वागत करते हुए कहा कि “कोई भी लघुआकारीय कथात्मक रचना लघुकथा नहीं होती। संपादकों एवं लेखकों को लघुकथा की सही पहचान करनी चाहिए। लघुकथा की भाषा सांकेतिक तो होनी ही चाहिए साथ ही उसमें लयात्मकता भी होनी चाहिए ताकि पाठक को रस की सहज अनुभूति हो सके। ऐसा तभी संभव है जब भाषा कथानक के अनुकूल हो।“ सत्र का संचालन हिन्दी और संस्कृत की विदुषी डॉ० मिथिलेशकुमारी मिश्र ने किया। संचालन करते हुए उन्होंने लघुकथा और ‘मंच’ के विकास हेतु युवा रचनाकारों को पूरी निष्ठा के साथ आगे आने को कहा।
इस अवसर पर लघुकथा के सर्वांगीण विकास में योगदान करने हेतु डॉ० इंदिरा खुराना (पानीपत) तथा चुरू, राजस्थान से पधारे डॉ० रामकुमार घोटड़ को ‘डॉ० परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान’ एवं डॉ० योगेन्द्रनाथ शुक्ल (इंदौर) को “मंच-सम्मान” से सम्मानित किया गया। साथ ही साहित्य की सेवा करने हेतु नरेन्द्र कुमार सिंह, बेगूसराय को “पत्रकार शिरोमणि”, महेन्द्रनारायण पंकज अररिया का “कथाभूषण” तथा हारूण रसीद अश्क, पटना को “विशिष्ट हिन्दी सेवी” उपाधियों से क्रमशः अखिल भारतीय हिंदी प्रसार प्रतिष्ठान एवं पीयूष साहित्य परिषद् द्वारा सम्मानित किया गया। इसके पश्चात् कई महत्वपूर्ण पुस्तकों एवं पत्रिकाओं के विशेषांकों का लोकार्पण कार्य सम्पन्न किया गया जिनमें प्रमुख थे ‘गंधारी की पीड़ा’ (डॉ० इंदिरा खुराना, पानीपत), ‘नदी सोच में है’ (डॉ० शैल रस्तोगी, मेरठ), ‘नारी जीवन की लघुकथाएँ’ (ईव केदारनाथ, सीतामढ़ी), ‘हमारा देश’ (डॉ० परमेश्वर गोयल, पूर्णिया) तथा ‘घुटन’, ‘महावीर प्रसादःजीवन एवं अवदान’ तथा ‘लोग-बाग उदास’ (डॉ० स्वर्ण किरण)। इसके साथ ही ख्यातिलब्ध जनगीतकार नचिकेता की षष्टिपूर्ति के अवसर पर पुनः-अंक १७ (संपादक- कृष्णानन्द कृष्ण) एवं “अलका मागधी” संपादक अभिमन्यु मौर्य का लोकार्पण किया गया।
उत्तर प्रदेश के बरेली से पधारे ख्यातिलब्ध कथाकार सुकेश साहनी ने लघुकथा में नवीन कथानकों एवं उसकी प्रस्तुति पर मेहनत करने की आवश्यकता पर बल देने की सलाह देते हुए मंच की ओर से लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के प्रकाशन पर बल दिया तथा अपने सहयोग हेतु आश्वस्त किया। महासचिव नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। शिक्षाविद् सच्चिदानन्द सिंह ‘साथी’ ने मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि लघुकथा में अपने समय की समस्याओं की तस्वीर पेश करनी चाहिये। साथ ही ट्रीटमेंट पर ध्यान देना होगा।
अपने अध्यक्षीय उद्-बोधन में कृष्णानन्द कृष्ण ने लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए लघुकथाकारों से आह्वान किया कि वे पुरानी घिसी-पिटी परिपाटी को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर कथा साहित्य में आये बदलावों के अनुरूप लघुकथा लेखन में भी बदलाव लायें तभी इसका विकास संभव होगा। साथ ही ‘लघुकथा मंच पत्रिका’ की उपयोगिता की चर्चा करते हुए उसके प्रकाशन पर बल दिया।
दूसरे सत्र में ‘‘लघुकथा-लेखन की समस्यायें पर केन्द्रित था। विचार विमर्श में रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, डॉ० जितेन्द्र सहाय, डॉ० लक्ष्मी विमल, इंदिरा खुराना, नागेन्द्र प्रसाद सिंह, सुकेश साहनी, नचिकेता, राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, डॉ० नीलू कुमारी, डॉ० राज कुमारी शर्मा ‘राज’ ने भाग लिया तथा सत्र का सफल संचालन डॉ० सतीशराज पुष्करणा ने किया। सर्वसम्मति से जो समस्यायें उभर कर सामने आयीं वो निम्न हैं-१ लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका का अभाव, २ लघुकथा क्या है की जानकारी का अभाव, ३ काल-दोष एवं अंतराल दोष की समझ का अभाव, ४ संपादकों को यह समझना होगा कि कोई भी लघुआकारीय रचना लघुकथा नहीं होती, ५ लघुकथा के इतिहास और उसके तकनीकि पक्ष की जानकारी का अभाव, ६ कथा-साहित्य की अन्य विधाओं से लघुकथा के अलगाव बिन्दु की जानकारी का अभाव, ७ कथानक का चुनाव, सही शिल्प और सटीक भाषा का अभाव।
तीसरे सत्र की शुरूआत लघुकथाओं के पाठ से प्रारंभ हुआ जिसका संचालन कृष्णानन्द कृष्ण ने सफलतापूर्वक संपन्न किया। इस सत्र में लगभग पैंतालिस लघुकथाकारों ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया जिनमें प्रमुख थे-सर्व श्री युगल, डॉ० सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु(बरेली), राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’(राय बरेली), डॉ० राज कुमारी शर्मा ‘राज’(गाजियाबाद), डॉ० इंदिरा खुराना (पानीपत), डॉ० रामकुमार घोटड़(राजस्थान), डॉ० योगेन्द्रनाथ शुक्ल (इंदौर), पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, डॉ० लक्ष्मी विमल (झारखंड), डॉ० मधु वर्मा, प्रभुनारायण विद्यार्थी (झारखंड), रामप्रसाद ‘अटल’ (भोपाल), राजेन्द्र वमौ (लखनऊ), नरेन्द्र कुमार सिंह, स्वाति गोदर, आलोक भारती, र्ई० केदारनाथ, ए० के० आँसू, चौधरी कन्हेया प्रसाद सिंह, सतीश प्रयसद सिन्हा, डॉ० स्वर्ण किरण, सतीशचन्द्र भगत, नरेन्द्र प्रसाद नवीन, भरतकुमार शर्मा, विशुद्धानंद, भुवनेश्वर प्रसाद ‘गुरमैता’, विश्वमोहन कुमार शुक्ल, नृपेन्द्रनाथ गुप्त,योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, देवेन्द्रनाथ साह, नरेश पांडेय ‘चकोर’, डॉ० सी०रा० प्रसाद आदि। पठित लघुकथाओं पर नागेन्द्र प्रसाद सिंह और गीतकार नचिकेता ने अपनी प्रतिक्रियाजाहिर करते हुए सुकेश साहनी, डॉ इंदिरा खुराना, डॉ० सतीशराज पुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु डॉ० लक्ष्मी विमल, रामप्रसाद ‘अटल’ की लघुकथाओं की काफी सराहना की तथा लघुकथा के शिल्प उसकी प्रस्तुति और कथानक के चुनाव पर सावधानी बरतने की सलाह लघुकथाकारों के दी।
सम्मेलन के अंतिम सत्र में काव्य पाठ का आयोजन किया गया जिसका संचालन किया राजकुमार प्रेमी ने। लघुकथा लेखकों के अलावा कविता पाठ करने वालों में कैलाश झा ‘किंकर’, डॉ० तेजनारायण कुशवाहा, मुना प्रसाद, नरेश कुमार, हरिद्वार प्रसाद किसलय, आशा प्रभात, डॉ० नीलू कुमारी, चंद्रकिशोर पाराशर, सिद्धेश्वर प्रसाद काश्यप्, सुरेन्द्र भारती, विमल किशोर सहाय, हारून रसीद अश्क, प्रमुख थे। डॉ० राजकुमारी शर्मा ‘राज’ की ग़ज़लों पर श्रोता झूम उठे।
इस अवसर पर सर्वश्री पुष्करणा ट्रेडर्स की स्वामिनी श्रीमती नीलम पुष्करणा और अयन प्रकाशन के मालिक श्रीभूपाल सूद द्वारा पुस्तक प्रदर्शनी तथा फतुहा के कलाकार अमरेन्द्र द्वारा लघुकथा पोस्टर प्रदर्शनी लगायी जिसकी सराहना मुक्त कंठ से की गयी। पुस्तकों की अच्छी बिक्री हुई।
यह सम्मेलन लघुकथा लेखक कमल गुप्त (वाराणसी), सुगनचन्द मुक्तेश, सुरेन्द्र वर्मा (सिरसा), तथा पटना के अनुरंजन प्रसाद सिंह तथा परमानंद दोषी की पुण्यस्मृति को सादर समर्पित था। साहित्य सचिव वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज के धन्यवाद ज्ञापन के साथ सम्मेलन संपन्न हुआ।
(वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, साहित्य सचिव अ० भा० प्र०लघुकथा मंच पटना की रिपोर्ट)

 

हिन्दी–लघुकथा के उल्लेखनीय हस्ताक्षर : रमेश बतरा

डॉ0 सतीशराज पुष्करणा
हिन्दी–लघुकथा के पुनरुत्थान काल के आठवें दशक में लघुकथा को जिन कुछ लोगों ने सार्थक दिशा दी है, इसे हाशिए से उठाकर मुख्य धारा से जोड़ा, उनमें रमेश बतरा का नाम अग्रगण्य है। रमेश बतरा उन दिनों कमलेश्वर के साथ जुड़कर ‘‘सारिका’’ को अपना संपादन सहयोग प्रदान कर रहे थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ‘‘सारिका’’ कथा–प्रधान पत्रिका के रूप में साहित्यकारों से लेकर जन–सामान्य तक, एक जैसी लोकप्रिय पत्रिका थी। ‘‘सारिका’’ का प्रत्येक अंक किसी–न–किसी कारण कारण से चर्चा का विषय बन जाता था। कभी वह कारण कोई कहानी या कभी कोई विशेषांक हो जाता था। ऐसे ही समय में 1973 में रमेश बतरा की एक लघुकथा ‘‘जरूरत’’ प्रकाश में आई थी। यह लघुकथा स्वप्न मनोविज्ञान के उस सिद्धांत का प्रतिपादन करती थी कि दिन में व्यक्ति की जो इच्छाएँ–अधूरी रह जाती हैं,वे उसके अवचेतन मस्तिष्क में चली जाती हैं और पुन: वह स्वप्न में पूरी होती हैं। इस लघुकथा ने लघुकथा–आंदोलन को गति दी और क्रमश: ‘‘सारिका’’ में निर्बाध रूप से लघुकथा स्थान प्राप्त करने लगी और कुछ ही समय में उसने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि ‘‘सारिका’’ के कुछ–कुछ समय के अन्तराल पर तीन–चार लघुकथांक प्रकाशित हुए। निस्संदेह इसका श्रेय जहाँ कमलेश्वर को जाता है, वहीं इसका श्रेय रमेश बतरा को भी जाता है।
रमेश बतरा–चाहे ‘‘सारिका’’–से सम्बद्ध रहे हों या ‘‘नवभारत टाइम्स’’ और ‘‘संडेमेल’’–रमेश ने लघुकथा को सदैव बढ़ावा दिया। रमेश ने स्वयं बहुत अधिक लघुकथाएँ नहीं लिखीं–उन्होंने कुल जमा तीस–बत्तीस लघुकथाएँ ही लिखीं। किन्तु जितनी भी लिखीं, वे सभी लघुकथा–जगत की धरोहर बन गई हैं। उनकी एक लघुकथा ‘‘स्वाद’’ 1983 में ‘‘तारिका’’ (अब शुभ तारिका) में प्रकाशित हुई थी। यह लघुकथा भी काफी चर्चित हुई थी। इस लघुकथा में ‘‘भूख’’ क्या होती है, यह बताया गया था। इस लघुकथा में दो भाई हीरा–मोती हैं। परदेस में दोनों रिक्शा खींचते हैं। घर से एक साथ निकलते हैं । दिन भर कहीं भी रहे, मगर रात में दस बजे एक ही ढाबे पर मिलते हैं। एक दिन दोनों मिले, तो हीरा ने रिक्शा से उतरते ही कहा, ‘‘चल मोती! आज देसी घी वाले होटल में खाना खाएँगे–बढि़या दिहाड़ी हो गई अपनी। ‘‘मोती इन्कार कर देता है और बताता है, ‘‘सुबह एक व्यापारी अपना टिफिन रिक्शा में भूल गया था। पहले तो मैं घंटा भर वहाँ खड़ा रहा कि शायद वह वापस आ जाए। पर कोई नहीं आया, तो मैंने टिफिन खोलकर देखा...घर का खाना था। मुझसे रहा नहीं गया। सारा चट कर गया। क्या स्वाद था भैया...तबसे कुछ खाने को जी ही नहीं चाह रहा है...।’’
हीरा पल भर तो मोती की खुशी में आत्म विभोर–सा हो गया। लेकिन फिर सहसा बड़े स्वर में उसे डाँटते हुए बोला, ‘‘पर तूने आधा मेरे वास्ते क्यों नहीं रखा, बेवकूफ।’’
बात केवल भूख तक ही सीमित नहीं है। बात अपनी जमीन से जुड़ी संवेदना की भी है कि घर–घर ही होता है। यही कारण है कि रमेश के पाठक उसकी लघुकथाओं में स्वयं को तलाश ले्ते हैं। अपने जीवन की घटनाओं में इन लघुकथाओं में स्वयं को कहीं–न–कहीं अवश्य ही खोज लेते हैं। रमेश ने लघुकथाएँ लिखी या कहानियाँ, सदैव भेड़–चाल से अलग हटकर लिखीं। उसकी लघुकथाओं में कभी भी अस्वाभाविक कल्पना द्वारा पात्र सृजित नहीं किए गए–यही कारण है उसकी लघुकथाओं के पात्र पाठकों की सहानुभूति सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं रमेश की लघुकथाओं को पढ़ने से ऐसा लगता है कि वह अपने पात्रों से स्वयं भी काफी सहानुभूति रखते हैं। वह उनके जख्मों को सहलाते हैं–उन पर मरहम लगाते हुए प्रतीत होते हैं। तात्पर्य यह है कि रमेश अपनी लघुकथाओं के पात्रों से काफी गहराई तक न मात्र जुड़ जाता था, बल्कि जुड़े ही रहते थे। इसका स्पष्ट कारण है कि वह विशुद्ध मानव था और अति संवेदनशील था। संवेदना की सीमा तक संवेदनशील कथाकार ही अपने पात्रों से इस गहराई तक जाकर जुड़ सकता है। इस संदर्भ में उसकी ‘एक लघुकथा’ ‘‘बीच बाजार’’ है। इस लघुकथा की विद्या एवं ‘‘वह औरत’’ दोनों पात्रों को लेखक की पूर्ण सहानुभूति प्राप्त हुई है।
रमेश ने कभी भी अपनी किसी भी लघुकथा को न तो बीच–खींच कर लम्बा किया और न ही काँट–छाँटकर छोटा कथानक के अनुसार सहल ही रचना ने जो आकार ग्रहण किया उसके साथ लेखकीय जबरदस्ती नहीं की। इस संदर्भ में 1978 में लिखी लघुकथा ‘‘कहूँ कहानी’’ देखी जा सकती है। यह लघुकथा मात्र सवा दो पंक्तियों की है। लघुकथा इस प्रकार है–
ए रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात में घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही–‘‘एक लाजा है, वो बोत गलीब है।’’
और लघुकथा समाप्त। इस रचना में जितना कहा गया है, उससे कहीं अधिक अनकहा है, जो कहीं से कहीं अधिक सम्प्रेरित हो जाता है।
रमेश ने अपने पात्रों द्वारा न तो परिस्कृत भाषा में संवाद कहलवाए और न ही पात्रों के अनुकूल भाषा के चक्कर में ऐसी किसी क्षेत्रीय बोली का उपयोग किया, जो कि उससे अलग क्षेत्र के पाठक की समझ में ही न आए। रमेश ने यथार्थ के नाम पर या पात्र के चरित्रानुकूल भाषा का उपयोग नहीं किया, जिसे सभ्य समाज में वर्जित समझा जाता है।
रमेश की लघुकथाओं में जिन्दगी की तलाश, जिन्दगी की तड़प, जिन्दगी को बचा लेने की शक्ति को तीव्रतर करने की बात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कही गई है। उसका मानना था कि लेखक की ‘संवेदनशीलता’ और ‘कला’ का समन्वय इस अनुपात में होना चाहिए कि रचना पाठक के हृदय को सहज ही स्पर्श कर जाए। ‘‘दुआ’’ लघुकथा इस कथन का सुन्दर उदाहरण है। शहर में दंगा हो जाता है। नायक कार्यालय से थ्रीव्हीलर पर बैठकर जल्दी ही घर पहुँचना चाहता है। अपने नियत स्थान पर पहुँचकर थ्री व्हीलर रुकता है। ड्राइवर मीटर देखकर कहता है, ‘‘पाँच रुपए सत्तर पैसे।’’
वह गुस्साता हुआ थ्री व्हीलर से उतरता है और जेब में हाथ डाले ड्राइवर की तरफ से आँख मूँदकर भागने लगता है। ड्राइवर उसका पीछा करता है किन्तु असफल रहता है और स्वयं में ही बड़बड़ाने लगता है, ‘‘साला हिन्दू है तो मुसलमानों के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिन्दुओं में जा फँसे।’’ ‘‘इसका शीर्षक’’ दुआ स्वयं में तीर–सा चुभता हुआ व्यंग्य है। इस कथाकार की लघुकथाएँ जहर भरी जिन्दगी के मध्य जीते आदमी की कथा बयान करती हैं। रमेश की लघुकथाएँ आम आदमी को तत्कालीन समाज एवं व्यवस्था में सम्पूर्ण मानवीय दृष्टिकोण के वातावरण में निरंतर आगे बढ़ते हुए संघर्ष करने का रास्ता दिखाती है। इनके पात्रों का जीवन अपनी पूरी जटिलता तथा संघर्ष–चेतना के साथ उजागर होता है। रमेश अपनी लघुकथाओं के माध्यम से आदमी के दु:ख–दर्द हेतु उसके शोषण व अपमान को नि:शेष करने हेतु पात्रों के माध्यम से वस्तुत: वह संघर्ष करते हैं। इसकी सुन्दर बानगी ‘खोया हुआ आदमी’ है। जहाँ आदमी इतनी उलझनों में उलझ गया है कि वह अपना पहचान ही भूल गया है कि वह रोज मरता है और रोज जीता है। जीवन जीने हेतु उसे क्या–क्या ढोंग करने पड़ते हैं। रोज कितने–कितने चेहरे बदलने पड़ते हैं। यह स्थिति नौकरी में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उसके सामने दूसरों की बुराई और बॉस की बड़ाई और बाहर आते ही साथियों के पूछने पर–‘‘क्यों भई, क्या रहा?’’
‘‘कुछ नहीं!’’ बीच ब्रांच में खड़े बाबू राम सहाय ने बॉस के कमरे की ओर मुहँ उठाकर कहीं, ‘‘हरामी!सठिया गया है...मरेगा।’’
वस्तुत: ऐसे ही दोहरे चरित्र के राम सहायों के कारण हमारे देश की यह स्थिति हुई है। यह रचना एक आफिस का प्रतीक बन कर पूरे देश की स्थिति का बयान करती है।
रमेश की लघुकथा में पात्रों एवं घटनाओं का संयोजन देखते ही बनता है। यही कारण है कि इसकी लघुकथाएँ पाठक पर अपना प्रभाव सहज ही जमा लेती हैं। और शायद यही एक प्रमुख कारण है कि इसकी लघुकथाएँ वर्षों में रहीं और कम लघुकथाएँ लिखकर भी वह लघुकथा इतिहास के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में स्थापित है। रमेश की एक लघुकथा है ‘लड़ाई’ यह लघुकथा रमेश की ही नहीं वरन् लघुकथा जगत् की एक उल्लेखनीय रचना है।
ससुर के नाम से आए तार को बहू पढ़ लेती है कि उसका पति सीमा पर अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शहीद हो गया है। ससुर जिज्ञासावश पूछता है कि तार में क्या लिखा है। वह कहती है, ‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’ सास पूछती है, ‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है, लड़ाई जल्दी ही खत्म हो जाएगी।
‘‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मजाक किया।
कुछ नहीं! ‘‘कहते हुए–मानो वह लजाई हुई–सी अपने कमरे की तरफ भाग जाती है और वह कमरे को ऐसे बंद करती है, मानो उसका पति कमरे में हो। वह सुहागरात वाला जोड़ा निकालकर पूरा शृंगार करती है। अलमारी में से बंदूक निकालती है। उसे साफ करती है। और बंदूक की बगल में लिटाकर चूम–चूमकर सो जाती है।
इस लघुकथा में अंधविश्वासों और रूढ़ियों की जकड़न को तोड़कर मानव को मुक्त करने का सार्थक एवं सराहनीय प्रयास है। वह अपने पात्रों को अक्सर लोमहर्षक व कठिन परिस्थितियों से इतनी सहजता से गुजार देते है। कि अस्वाभाविक होते हुए भी सब कुछ सहज–स्वाभाविक लगता है। इसकी लघुकथाओं की एक अन्य विशेषता यह है कि उनका अन्त इतना स्वाभाविक एवं सटीक होता है। कि पाठक पर रचना का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इसके श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में इसकी किसी भी लघुकथा को प्रस्तुत किया जा सकता है। परन्तु ‘नागरिक’ से अच्छा उदाहरण और क्या होगा। जहाँ पुलिस–तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल बहुत ही करीने से खोली गई है। पुलिस, जिसे चाकू लगे हैं उसी को कातिल समझ कर बंद करना चाहती है। देखे इस लघुकथा का अंत –
‘‘ऐ...ऐ...क्या नाम...क्या नंबर है तुम्हारा?’’ कुर्सी पर बैठी चकमक वर्दी फुर्ती से उठी और चिल्लाने लगी, ‘‘थाम लो साले को...बच्चा कहीं कोई खून–खराबा करके आया लगता है।’’
रमेश ने अपनी लघुकथाओं का अन्त कभी चौंकाकर नहीं किया। उसका मानना था कि चौंकाने वाले अंत से एक क्षण को तो आनंद की अनुभूति होती है, किन्तु ऐसी रचनाएँ कभी भी स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। अत: रचना का अंत भी स्वाभाविक ही होना चाहिए कि पाठक रचना को बार–बार पढ़े और बार–बार उसके विषय में सोचे, और उसपर विचार करे।
रमेश ने अपनी लघुकथाओं में अपने समय के समाज का सच लिखा और उसे क्लासिक ढंग से प्रस्तुत किया। उसकी रचनाओं से गुजरने पर एक अन्य बात साफ होकर सामने आती है कि उसका उद्देश्य वर्तमान समाज में व्याप्त प्रतिक्रियावादी शक्तियों की उखाड़ फेंकना है। आग के समाज में महामारी की तरह से फैल रही जाति–प्रथा,धार्मिक उन्माद, आपसी वैमनस्य,नारी उत्पीड़न,इत्यादि विसंगतियों को उसकी लघुकथाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। इसका भी कारण है कि यह सब कैसे संभव हो पाता है–उसकी लघुकथाओं के पात्र बहुत ही जीवन्तता से न मात्र चित्रित हुए हैं, बल्कि पाठकों के समक्ष सजीव होकर उपस्थिति हो जाते हैं और उनसे सीधा साक्षात्कार करते हैं।
आज हमारे देश में बार–बार जनता पर चुनाव लादकर प्रजातंत्र का मजाक उड़ाया जा रहा है। रमेश जैसा संवेदनशील लेखक इन स्थितियों से बेखबर कैसे रह सकता है? वह अपनी रचनाओं के माध्यम से वर्तमान प्रतातांत्रिक व्यवस्था की कुव्यवस्था पर लगातार प्रहार करते है और पाठक के दिल में हलचल पैदा करके उसे सोचने–कुछ करने हेतु उत्प्रेरित करती है। इसके लिए उसकी लघुकथा ‘अनुभवी’’ का अध्ययन किया जा सकता है।
रमेश का मानना है कि किसी भी अभियान को अतिशील बनाएँ रखने के साहित्यकार की एक विशिष्ट भूमिका रहती है। वह समक्ष सच के साथ–साथ तमाम सामाजिक एवं राजनैतिक स्थितियों को बहुत ही सम्प्रेषणीय ढंग से पाठकों के समक्ष रखता है और उन्हें प्रतिकूलता के विरोध में सीधी लड़ाई हेतु तैयार करता है। हमारी स्वतंत्रता–संग्राम एवं जे.पी.आंदोलन इस सत्यता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
हाँ! रमेश की लघुकथाओं में कहीं–कहीं बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता भी पड़ती है। ‘‘खोया हुआ आदमी’’ इसका सुन्दर उदाहरण है। यह सच भी है कि लेखक अपने लेखन का अधिकांश प्रतिशत पाठकों के लिए ही लिखता है, मगर कुछ प्रतिशत वह अपने सुख के लिए भी लिखता है। कारण वह स्वयं भी लेखक होने के साथ–साथ एक पाठक भी तो होता है। ऐसी बौद्धिक और संवेदनशील लेखकों की प्रत्येक भाषा के साहित्य को आवश्यकता होती है। ऐसे में रमेश का 16 मार्च, 1999 ई0 को मात्र छियालिस वर्ष ,छह महीने और अट्ठारह दिन की अल्पायु में अपने लेखकीय दायित्व को अधूरा छोड़कर दिवंगत हो जाना, मात्र लघुकथा की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कथा–जगत् की ऐसी अपूर्णीय क्षति है, जिसे केवल रमेश बतरा ही पूरा कर सकते थे। ऐसे जुझारु रचनाकार की कथा–साधना का बार–बार अभिन्नदन और उसी आत्मा को शत्–शत् बार नमन्!
-0-

4- लघुकथाएँ

सतीशराज पुष्करणा

पुरुष
बस गंतव्य की ओर अपनी गति से बढ़ी जा रही है और मार्कण्डेय जी भी उस बस के एक यात्री है। वह सबसे आगे दाहिनी खिड़की की ओर बैठे हैं। वह खिड़की से बाहर पीछे छूटते जा रहे दृश्यों का अवलोकन करते जा रहे हैं और अपने जीवन को प्रकृति से जोड़ते हुए सोच रहे हैं। कभी वह प्रफुल्लित लगने लगते हैं और कभी उदास। इतने में उनके पीछे की सीट से हल्के-हल्के दो नारी-स्वरों का वार्तालाप उनके कानों से टकराया, जो उन्हें सुखद लगा।
अब उनकी दृष्टि तो खिड़की से बाहर थी, किन्तु मन अपनी पिछली सीट पर। उनका चेहरा कुछ द्वन्द्व एवं कुछ तनाव में दिखने लगा। अपनी उम्र और प्रतिष्ठा को देखते हुए वह चाहकर भी अपने पीछे घूमकर देख नहीं पा रहे हैं और मन ऐसा है कि उन्हें पीछे मुड़कर देखने का बाध्य कर रहा है। किन्तु लोकाचार के हाथों विवश मार्कण्डेय जी पुन: खिड़की से बाहर पीछे की ओर भागते जा रहे दृश्यों को देखने लगते हैं। अब वह प्रकृति को अपने से नहीं, पिछली सीट पर बैठी नारियों से जोड़कर सोच रहे हैं। उनके मानस-पटल पर कभी युवतियों के चेहरे उभरते हैं, कभी अधेड़ और कभी उससे भी अधिक आयु एवं सुंदरता का अनुमान वह अवश्य लगा रहे हैं। फिर अनुमान ही हुआ करता है।
उन्हें झुँझालाहट हो रही है कि बस कहीं रुक क्यों नहीं रही है? बस रुके और वह ज्ञरा अपनी सीट से हटें और पीछे सहज रूप से देख सकें; अपराधबोध से भी बचा जाए। किन्तु बस चलती ही जा रही है।मौसम थोड़ा ठंडा होने लगा है। हवा के झोंके उन्हें अच्छे लग रहे हैं, आनन्द प्रदान कर रहे हैं। मन में कहीं हल्की-सी गुदगुदी भी हो रही है। चेहरा प्रफुल्लित-सा होने लगता है। उन्हें हरियाली दिखाई पड़ रही है।
बाहर हल्की बूँदाबाँदी आरम्भ हो जाने के बावजूद उन्हें इसका कोई एहसास नहीं है। वह पीछे बैठी नारियों के रूप एवं स्वरूप की कल्पना में खोए हैं। एक से एक सुन्दर चेहरे मानस-पटल पर बाहरी । दृश्यों की तरह आते और ओझल होते जा रहे हैं। तेज हवा के झोंके के साथ पानी के हल्के छींटे खिड़की के खुले कपाटों से उनके चेहरे को भिगो रहे हैं, मगर उन्हें उसका कोई विशेष एहसास नहीं हो पा रहा है। एकाएक पीछे से नारी-स्वर हल्के-से उनके कानों से टकराया, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!"
इस स्वर ने उन्हें चौंका दिया और उनके मुँह से निकला,"अच्छा बेटा!" और किसी स्वचालित मशीन की भाँति उनके हाथ खिड़की की ओर बढ़ जाते हैं और धीरे से खिड़की को बन्द कर देते हैं।
अब उनका मन शांत हो गया है और उनकी निगाहें सामने बैठे बस चला रहे ड्राइवर की पीठ से चिपक जाती हैं।


-0-
हाथी के दाँत

घर में आयोजित एक समारोह से जैसे ही फुर्सत मिली, वह और उसके मित्र भीड़ से कटकर घर के एक कोने में जा बैठे, और बातचीत का क्रम चल निकला। बातचीत का मुख्य विषय राजनीति ही रहा। एक ने कहा, "परिवर्तन आवश्यक था…नई सरकार से आशाएं बँधी हैं।"
"अरे क्या खाक परिवर्तन हुआ! पहली सरकार के निकाले हुए कुछ लोगों की सरकार है…यदि वह इन्हें नहीं निकालती तो ये कुर्सी-चिपकू कब वहाँ से हटनेवाले थे!" दूसरे ने तर्क जड़ा।
इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, उसने अपने नौकर को आवाज दी, "अरे ननकू, कहाँ मर गया!"
नौकर को आवाज देकर वह पुन: बातचीत में शामिल होते हुए बोला, "अरे यार! परिवर्तन तो तब समझो…जब सत्ता सर्वहारा के हाथ में आए। जब तक सरकार रईसजादों के हाथ में रहेगी, तब तक इस समाज और इस देशा का हित संभव नहीं है। भारत के अस्सी प्रतिशत लोग तो गांवों में बसते हैं।" अपनी बात समाप्त करते ही वह भुनभुनाया, "यह हरामजादा ननकू भी सुनता नहीं…आवाज्ञ दी थी…पर इस साले पर कोई असर हो…तब तो…!" उसने पुन: आवाज्ञ दी, "ननकू…तू सुनता क्यों नहीं रे?"
हाथ पोंछते हुए लपकते-लपकते ननकू आ गया और बोला, "जी मालिक ! खाना खा रहा था…इसी से कुछ देर हो गई।"
"अबे मालिक के बच्चे! तूझे खाने की पड़ी है… और मेरा गला मारे प्यास के सूखा जा रहा है।" इतना डाँटने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-मित्रों के मध्य नौकर को बुलवाया…वह तुरंत उपस्थित ही नहीं हुआ। उसे यह स्थिति अपमानजनक लगी-यह सोचकर उसका क्रोध एकाएक सातवें आसमान पर जा पहुंचा और उसका दाहिना हाथ पूरे वेग से घूमा और 'चटाक्' की ध्वनि के साथ ननकू के गाल पर जा चिपका।

-0-
सहानुभूति
कहीं से स्थानान्तरण होकर आए नए-नए अधिकारी एवं वहां की वर्कशाप के एक कर्मचारी रामू दादा के मध्य अधिकारी के कार्यालय में गर्मागर्म वार्तालाप हो रहा था।
अधिकारी किसी कार्य के समय पर पूरा न होने पर उसे ऊँचे स्वर में डाँट रहे थे-
"तुम निहायत ही आलसी और कामचोर हो।"
"देखिए सर! इस तरह गाली देने का आपको कोई हक नहीं है।"
"क्यों नहीं है? "
"आप भी सरकारी नौकर हैं, और मैं भी।"
"चोप्प! "
"दहाड़िए मत! आप ।ट्रांसफर से ज्यादा मेरा कुछ भी नहीं कर सकते।"
"और वही मैं होने नहीं दूँगा।"
"आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे लूँगा। किन्तु इस प्रकार आप मुझे डाँट नहीं सकते। वरना…"
"मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो….कर लेना। समझे? "
निरुत्तर हुआ-सा रामू इसके बाद चुपचाप सिर झुकाए कार्यालय से निकल आया।
बाहर खड़े साथियों ने सहज ही अनुमान लगाया कि आज घर जाते समय साहब की खैर नहीं। दादा इन्हें भी अपने हाथ जरूर दिखाएगा, ताकि फिर वे किसी को इस प्रकार अपमानित न कर सकें।
इतने में से उन्हीं में से कोई फूटा-"दादा! लगता है इसे भी सबक सिखलाना ही पड़ेगा।"
"नहीं रे! सबक तो आज उसने ही सिखा दिया है मुझे। वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।"
इतना कहकर वह अपने कार्यस्थल की ओर मुड़ गया।
-0-
वर्ग-भेद
वे तीनों आपस में न तो मित्र थीं, और न ही शत्रु थीं। तीनों रेखाएँ विषमबाहु त्रिभुज की थीं। माप में सभी भिन्न थीं। आधारभुजा सबसे बड़ी थी। अन्य भुजाओ में एक मध्यम तथा दूसरी छोटी थी। बड़ी भुजा अन्य दोनों भुजाओ को आधार दिए हुए थी और दोनों को अपने-अपने ढंग से तथा उनके स्तर को ध्यान में रखकर उपयोग करती थी। छोटी भुजा उसको अपेक्षाकृत अधिक प्रिय थी कि थोड़े-से लालच में वह उसे एक नौकरानी की तरह उपयोग कर लेती थी। छोटी भुजा के लिए यही गर्व की बात थी कि उसे बड़ी भुजा का सान्निध्य प्राप्त था।
मध्यम भुजा दोनों के मध्य थी। उसका संबंध भी दोनों से था, मगर अपना अस्तित्व एवं स्वाभिमान बरकरार रखकर। पढ़ी-लिखी होने के कारण मध्य भुजा की दृष्टि बहुत पैनी तथा सोच खुली एवं निखरी हुई थी। अत:,दोनों भुजाओ को कभी-कभी उससे भय भी लगता था और खतरे का अनुभव भी करती थीं। बड़ी और छोटी दोनों मिलकर मध्यम के विरूद्ध षडयंत्र भी रचातीं, किन्तु सफल नहीं हो पाती थीं। फिर भी बहुत ही चालाकी से बड़ी उसे उसकी हैसियत का एहसास करा देती और मध्यम को मोहरा बना लेती। एक-दो बार तो मध्यम मोहरा बनी, किन्तु तीसरी बार उसने स्पष्ट इन्कार तो नहीं किया, किन्तु धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने हेतु दोनों का साथ छोड़ने लगी, और छोड़ते-छोड़ते वह पूर्णत: स्वतंत्र हो गई। इस प्रकार विषमबाहु त्रिभुज बिखरकर स्वतंत्र रेखाओ में परिवर्तित हो गया।
छोटी भुजा अब उदास थी और अपने जीवन को रक्षा हेतु अपने अस्तित्व की तलाश करने लगी। बड़ी भुजा छोटी भुजा को देखकर किसी सामंत की तरह धीरे-धीरे कुटिल मुस्कान छोड़ रही थी।

-0-



Friday, November 12, 2010

प्रसंगवश -सतीशराज पुष्करणा

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सतीशराज पुष्करणा विभिन्न विधाओं में एक लम्बे अर्से से लिख रहे हैं ।लघुकथा लेखक के रूप में पुष्करणा जी ने राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है । समीक्षक के रूप में लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी आपने पर्याप्त कार्य किया है । विभिन्न प्रान्तों में समय-समय पर होने वाली गोष्ठियों और सम्मेलनों में अपने सुलझे हुए विचारों से  लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों  के आइसबर्ग को तोड़ा  है ।सम्पादक के रूप में कई सौ लघुकथाकारों को एक मंच पर लाने का काम भी किया  है ।
        प्रसंगवश पुष्करणा जी की लघुकथाओं का दूसरा संग्रह है ।इस संग्रह की बहुत सारी लघुकथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं । ये लघुकथाएँ नवोदित लेखकों के लिए प्रतिदर्श हैं। कथ्य की विश्वसनीयता एवं पैनापन, शिल्प की सहजता और प्रांजलता, पात्रों की जीवन्तता ;इन्हें और भी खरा बना देती है । लेखक ने सतही वर्णन से परहेज़ किया है । सूक्ष्म पर्यवेक्षण के द्वारा  लेखक पात्रों की मनोभूमि पर उतरकर चित्रण को संश्लिष्ट एवं बोधगम्य बनाने में सफल रहा है  । आधुनिक यांत्रिक सम्बन्धों की विडम्बना एवं मूल्य -विघटन ,, व्यक्तित्व के खोखलेपन, प्रशासन की जड़ता एवं नपुंसकता , सामाजिक दायित्वहीनता ,कालबोध के प्रति कच्छप-वृत्ति पर लेखक ने जगह-जगह प्रहार किया है । इस संग्रह की लघुकथाओं में कुल मिलाकर जीवन -दृष्टि का सकारात्मक पक्ष ही सामने आया है । ‘स्वाभिमानी’ लघुकथा को छोड़ा जा सकता है ।इसका अच्छा या बुरा प्रभाव पाठक के मन को टटोलने के लिए है । अधिकतम लघुकथाओं की गूँज आस्थावादी है । यह अनुगूँज उन लेखकों से पुष्करणा जी को अलग करती है ; जिन्हें यह संसार ‘कसाईखाने’ से अधिक कुछ दिखाई नहीं देता ।
इक्कीसवीं सदी, सहानुभूति ,एक और एक ग्यारह ,ऊँचाई  लघुकथाएँ अपनी साहित्यिक ज़िम्मेदारी निभाती दिखलाई देती हैं। ड्राइंगरूम स्मृति , सबक ,बात ज़रूरत -ज़रूरत की-ये लघुकथाएँ हृदय की सूक्ष्म भावनाओं को बड़ी तीव्रता से महसूस कराती है। पत्नी की इच्छा ,क्षितिज  सम्बन्धों की स्वार्थपरता को बेनक़ाब करती है ।‘ पश्चाताप’  लघुकथा उन सह्ज सम्बन्धों को समर्पित है , जो केवल विश्वास पर चलते हैं   और  यही विश्वास आत्मा का सौन्दर्य  एवं शक्ति है ।‘इबादत’ का सन्देश  है कि मानवीय संवेदना ही सबसे ऊपर होती  है ।
कुछ् लघुकथाएँ सड़ी-गली व्यवस्था की शल्य-क्रिया करती नज़र आती हैं ,जिनमें फ़र्ज़,नौकर ,परिभाषा,बेबसी, फ़ितरत लघुकथाएँ प्रशासनिक दोगलेपन एवं जनसाधारण की पंगुता को के दर्द को रेखांकित करती हैं । ‘सीढ़ी’ लघुकथा अवसरवादिता एवं आज के शिक्षकों की मूल्यहीनता को ,’सही न्याय’ प्राचार्य के उत्तरदायित्व -निर्वाह  एवं व्यवहार -सजगता को उजागर करती है ।व्यापारी, अन्याय , बिखरी हुई मित्रता,पुरस्कार लघुकथाएँ प्रभावी एवं उल्लेखनीय है। इन लघुकथाओं में सफ़ेदपोशों की हृदयहीनता , पाशविक क्रूरता एवं जनसामान्य की मर्मभेदी विवशता सहज शैली में प्रस्तुत किया गया है ।‘सच्चा इतिहास’जनसाधारण की वेदना को रूपायित करती है। ‘दिखावा’, ’हीन भावना’ नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य करती है। ‘जाग्रति’ के बढ़ते कदम’ सशक्त लघुकथा है ;जो शोषित के उफनते विद्रोह  को इंगित करती है ।
 सभी लघुकथाओं को विषयानुकूल  दस खण्डों में विभाजित किया गया है ।हत्या , बलात्कार की लघुकथाओं से लेखक ने अपनी पुस्तक को बचाया है । अखबारी सूचनाओं ,उद्देश्यहीन प्रसंगों को लेखक ने ‘प्रसंगवश’ में अपनी लघुकथाओं का विषय नहीं बनाया है । अपने परिवेश के प्रति लेखकीय ईमानदारी विभिन्न रचनाओं में साफ झलकती है ।
प्रसंगवश: सतीशराज पुष्करणा , अयन प्रकशन ,1/20 महरौली नई दिल्ली-110030
मूल्य :25 रुपये ,  पृष्ठ : 120  संस्करण: 1987
-0-

Tuesday, November 9, 2010

हाइकु(दीपावली)



डॉ सतीशराज पुष्करणा
 
1-दिवाली हुई
जिस रात उजाला
मन में हुआ ।
2-दीपों से नहीं
ज्ञान के प्रकाश से
होती दिवाली ।
3-दिवाली पर्व
भूखा जो कोई सोया
प्रकाश रोया ।
4-मन में तम
कैसे कोई मनाए
दिवाली-पर्व ।
5-दीपावली है
तम से प्रकाश में
जाने का नाम ।
6-कैसी दिवाली ?
बाहर उजाला है
मन अँधेरा ।
7-मिली है जब
अँधेरे पे विजय
दिवाली हुई ।
8-समय पर
रात बीत जाएगी
धैर्य बनाएँ।
9-दीपों का पर्व
सिर्फ़ नहीं दिवाली
संस्कार भी है ।
10-दीप से घर
ज्ञान से सारा जग
रौशन होता ।